Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम-अध्याय
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लक्षण वही होना चाहिये जिससे कि छोटा स्वरूप दूसरा नहीं होसके अन्यथा वे केवल भाटों के गीत समझे जाते हैं।
कार्य द्रव्यों को प्राद्य लक्षण में निर्गुण कहना वैशेषिकों का उचित सिद्धान्त नहीं है, जिस प्रकार द्रव्य के बिना गुण निराधार नहीं ठहर पाते हैं, उसी प्रकार द्रव्य भी गुणों के बिना निराधेय नहीं ठहर सकता है, गुणों का द्रव्य के साथ अविनाभाव है, द्रव्य और गुणों का तादात्म्य ही कह दिया जाय कोई क्षति नहीं पड़ती है, तभी तो सूत्रकार ने द्रव्य के उक्त लक्षण सूत्र में गुण को उपात्त किया है।
नन्वेवमत्रापि पर्यायवद्र्व्यमियुक्त गुणवदित्यनर्थकं सर्वद्रव्येषु पर्यायवत्वस्य भावात् गुणवदिति चोक्त पर्यायव दिति व्यर्थं तत एवेति तदुभयं लक्षणं द्रव्यस्य किमर्थमुक्तमित्यत्रोच्यते।
यहां किमी पण्डित का प्राक्षेप है, कि जब जैन इस प्रकार ही लक्षणों में लाधव करने लगे तो ऐसे ढंग अनुसार यहां सूत्र में भी पर्याय वाला द्रव्य होता है. ' पर्यायवद्रव्यं ' इतना कह चुकने पर द्रव्य का निर्दोष लक्षण बन जाता है, पुनः “गुणवत्" यह भी कहना तो व्यर्थ पड़ा क्योंकि सम्पूर्ण द्रव्यों में पर्यायसहितपन का सद्भाव पाया जाता है, कोई भी द्रव्य कदाचित् भी पर्यायों से रीता नहीं है, द्रव्यों से अतिरिक्त स्थानों में पर्यायें ठहरती नहीं हैं, द्रव्य के गुण किसी न किसी पर्याय को धारे ही रहते हैं, अतः अव्याप्वि, अतिव्याप्ति, असम्भव, दोषों की सम्भावना नहीं है।
अथवा और भी अक्षरकृत लाघव करना होय तो "गुण वद्रव्यं" गुणों से सहित द्रव्य होता है यों इतना कह चुकने पर ही "पर्यायवत्" यह पद व्यर्थ पड़ता है । जिस कारण से वैशेषिकों के यहां माने गये द्रव्य लक्षण ने तीन घटकावयवों पर कटाक्ष उठाया गया था तिसी ही कारण से आक्षेप प्रवर्तता है, कि वे "गुणवद्रव्यं, पर्यायवद्रव्यं" यों दोनों ही द्रव्य के लक्षण भला किस प्रयोजन के लिये सूत्रकार ने इस सूत्र में कहे हैं ? बतायो, इस प्रकार आक्षेप प्रवर्तने पर ग्रन्थकार करके यहां समाधानार्थ यह अगिली वात्तिक कही जाती है।
गुणवद्रव्यमित्युक्तं सहानेकांतसिद्धये ।
तथा पर्यायवद्रव्यं क्रमानेकांवित्तये ॥५॥
सह-अनेकान्त की सिद्धि कराने के लिये इस सूत्र में “गुणवद्रव्य" गुण वाला द्रव्य होता है, यह अंश कहा गया है, तथापि शिष्यों को क्रम-अनेकान्त की प्रतिपत्ति कराने के लिये सूत्रकार ने "पर्यायवद्रव्यं" पर्यायों बाला द्रव्य होता है, यह दूसरा लक्षण का घटकावयव कहा है। अर्थात्-द्रव्य के सहभावी परिणाम गुण हैं और क्रमभावी अंश पर्यायें हैं, त्रिलक्षण प्रात्मक द्रव्य के उत्पाद, व्यय, अशों की भित्ति पर पर्यायें डटी हुई हैं, और ध्रौव्य की भित्ति पर गुणों का होना विवक्षित है, अनन्त