Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम-अध्याय
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आदि अन्य कियानों के अध्याहार की निवृत्ति के लिये उपजना इस क्रिया का स्पष्ट शब्दों द्वारा निरू पण किया है। दूसरा “ भेदादणुः" भेद से अणू होता है, यह सूत्र तो मात्र नियम करने के लिये ही है परमाणु की उत्पत्ति का विधान तो ' भेदसंघातेभ्य: उत्पद्यन्ते" इस पहिले सूत्र से ही हो चुका था क्योंकि पूर्व सूत्रोक्त अणूयें और स्कन्ध इन सभी पुद्गलों का इस मूत्रद्वारा उपजना कहा है अत: “नद से परमाणू की कल्पना करली जाती है " इस अर्थ का यहां कथमपि अवसर नहीं है।
चार्वाकों ने " पृथिव्यप्तेजोवायुरिति तत्वानि " " तत्समुदये शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञास्तेभ्यश्चैतन्यं " यहां वड़ी दक्षता से काम लिया है " उत्पद्यते या सभिव्यज्यते " चाहे किसी भी क्रिया का उपस्कार किया जा सकता है ऐसी लोकदक्षता या दम्भ करना हम स्याद्वादियों को अभीष्ट नहीं है, '' स्पष्टवक्ता न वञ्चकः" इस नीतिके अनुसार डंके की चोट ग्याद्वादसिद्धान्त का हम प्रतिपादन करते हैं भेद से परमाणूयें उपजते हैं वे समघन चतुरस्र परमाणूये पहिले स्कन्ध अवस्था में बंधे हये थे। पीछे भी योग्यता मिलने पर बन्ध जाते हैं। यों परमाणूत्रों के प्रबन्ध का एकान्त किये जाना प्रशस्त नहीं है तथा परमाणू यों को प्रबन्। मान कर स्कन्ध का निराकरण करते चले जाना भी टीक नहीं है जब की परमाणूओं का वंध होरहा प्रतीत होरहा है, पुद्गलों का बंध ही स्कन्ध है।
किंच, विवादापन्नाः स्कंधभेदाः क्वचिन्प्रकर्षभाजः प्रकृष्यमाणत्वात् परिमाणवदित्यनुमानवाधितत्वान्न परमाणु नामबंधकल्पना श्रेयसी ।
___ एक बात यह भी है, कि घट के टुकड़े, कपाल के टुकड़े, कपालिका के टुकड़े, ठिकुच्ची छोटी ठिकुच्ची आदि उत्तरोत्तर टुकड़े होरहे स्कन्ध के भेद ( पक्ष ) कहीं न कहीं प्रकर्ष अवस्था को धार लेते हैं, ( साध्य ) अतिशय होते होते तारतम्य अनुसार उत्तरोत्तर छेदन, भेदन, का प्रकर्ष होता जारहा होने से ( हेतु ) परिमाण के समान ( अन्वयदृष्टान्त ) । अर्थात्-परिमाण बढ़ते बढ़ते जैसे अलोकाकाश में समाप्त होजाता है और परिमाण घटते घटते परमाणू में जाकर अन्तिम अटक जाता है, उससे आगे नहीं चल पाता है, इसी प्रकार स्कन्धका टुकड़ा होते होते अविभागी परमाणू पर अन्त में जाकर ठहर जाता है, पहिले परमाणू बंधे थे तभी तो उसके भेदसे टुकड़े हुये यों इस उक्त अनुमान से बाधित हाजाने के कारण परमाणूत्रों के प्रबंध की कल्पना करना श्रेष्ठ नहीं है।
ननु च परमाणुनामबंधसाधने तेषां पुनर्वधाभावः साकन्येनैकदेशेन बंधस्याघटनादति चेन्न, सूक्ष्मस्कंधानामपि बंधाभावप्रसंगात् । तेषामपि कात्स्न्येन बंधे सूक्ष्मैकस्कंधमात्रपिंडप्रसक्तः एकदेशेन संबधे चैकस्कंधदेशभ्य स्कंधांपदेशेन बंधः कास्न्येनैकदेशेन वा भवेत ? कात्स्न्ये न चेत्तदेकदेशमात्रप्रसक्तिः ,एकदेशेन चेदन स्था स्यात्, प्रकारांतरेण तद्वन्धे परमाणुनामपि बंधम्तथैन स्यात स्निग्धरूक्षन्वाइंध इति निःप्रतिदंद्रम्य बंधस्य माधनात् । ततः सूक्तन जघन्यगुणानां बंध इति प्रतिषेधवत्पुद्गलानामबधसिद्धरपि संग्रह इति ।