Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम अध्याय
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भूत हो चुके भी गुण शब्द की यहां अर्थ की सामर्थ्य से अनुवृत्ति कर ली जाती है, उस गुरण शब्द से अन्य होरहे द्वि, अधिक श्रादि इन प्रयोजनीभूत शब्दों की अनुवृत्ति करना यहां नहीं सम्भवता है, अतः 'गुण' इस द्विवचनान्त पदका ही यहां सूत्रमें दोनों ओर से सम्बन्ध कर लेना युक्त है । 'अर्थवशाद् विभक्तिवचनविपरिणामः' अर्थ के वश से विभक्ति और वचन का परिवर्तन कर दिया जाता है, श्रतः षष्ठी बहुवचनान्त 'गुग्गानां' इस पद को यहां प्रथमा द्विवचनान्त 'गुण' इस स्वरूप से परिणत कर दिया गया है, पारिणामिक का अर्थ प्रकृत भाव से अन्य भावों में प्राप्ति करा देना है, जैसे कि मधुर रस वाला गीला गुड़ यहां वहां से उड़ कर पड़ गये रेत, धूल, आदि की अपने मधुर रस अनुसार परिणति करा देता है । यद्यपि गुड़ में धूलि करणों के मिल जाने पर उतना मीठापन नहीं रहता है, सूक्ष्म दृष्टि पुरुषों से यह बात छिपी नहीं है, फिर भी उस धूलि का रस गुड़ में मिल जाने से परिवर्तित होगया है, यह निःसन्देह मानना पड़ता है, एक कडवे वादाम ने भले ही पांच सेर ठंडाई को बिगाड़ दिया है. फिर भी अधिक मीठी ठडाई ने इधर कड़वे बादाम को मीठा होजाने के लिये भी वाध्य कर दिया है, हां यदि कटु बादाम उसमें नहीं गिरता तो ठंडाई और भी अधिक मोठी होजाती। यहां इतना ही कहना है, कि ठंठाई ने बादाम को मीठा किया किन्तु एक कटु बादाम ने मीठी ठंडाई को कडुग्रा नहीं कर दिया है, अतः गीला गुड़ जैसे रेनों का स्वकोय रस अनुसार पारिणामिक है, उसी प्रकार बंध होजाने पर अधिक गुरण उस दूसरे के गुणों को अन्य भावों अनुसार आपादन करते हुये पारिणामिक हो रहे हैं, इसी सिद्धान्त की अग्रिम वार्तिक द्वारा और भी स्पष्ट करके ग्रन्थकार दिखाते हैं ।
बन्धेधिको गुणौ यस्मादन्येषां पारिणामिकौ ।
दृष्ट सक्तुलादीनां नान्यथेत्यत्र युक्तिवाक् ॥ १ ॥
में
जिस कारण कि बन्ध हो जाने पर अधिक गुण उन बन्ध रहे अन्य द्रव्यों को स्वकीय गुणानुरूप परिणमन करा देने वाले देखे गये हैं । जैसे कि सतुग्रा जल या पानी वूरा, अथवा दूध मिश्री श्रादि पदार्थों का बन्ध होजाने पर अधिक गुरण वाला द्रव्य अन्य न्यून गुण वाले का स्वानुरूप परिणाम कर लेता है, अन्य प्रकारों से कोई व्यवस्था नहीं होपाती है । अतः यों इस सूत्र यह अनुमान बनाते हुये युक्ति- वाक्य प्रतीत होरहा है । अर्थात् - व्यवहार में भी द्रव्यवान् पुरुष दरिद्रों को, उद्भट पण्डित जिज्ञासुओं को, प्रकाण्ड वक्ता श्रोताओं को, चतुर नारी पति को, गुरु चेला को, अपने अनुकूल कर ही लेते हैं । रिक्त पदार्थ पूर्ण के अधीन होजाता है, पुत्र रहित महाराणी भी बच्चों वाली पिसनहारी की ओर टकटकी लगाती हुई देखती रहती है, विचारती है कि भले ही मैं निर्धन होती किन्तु बच्चों वाली होती । बच्चों को अपनी प्रांखोंमें बैठाये रखती । सच्चरित्र और सिद्धान्त न्यायवेत्ता विद्वान् के मुख की थोर सैकड़ों धनाढ्य मुंह बांये खड़े रहते हैं, गुणी पुरुष का अल्पगुणी पुरुष पर बड़ा भारी प्रभाव