Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम अध्याय
३७६
परिणतियों में तारतम्य अनुसार मीठेपन के अविभाग परिशों को करता करतो जाती है ।
उत्तरोत्तर - सुगन्ध, पर्यायें तीब्र
किसी पुरुष में पहिले अल्प गन्ध थी पुनः उसी गंध गुण की सुगन्ध स्वरूप होगई हैं यहां भी गंध की परिपूर्ण परीक्षा करने के लिये सुगंध परिणामों के प्रशगढ़ लिये जाते हैं, उड़द की दाल में कुछ देर तक घरी रहने से चिकनेपन के अंश बढ़ते हुये कल्पित कर लिये जाते हैं । विद्यार्थी की परीक्षा लेते हुये पूर्ण उत्तरों के सो प्रदेश कल्पित कर छात्र की व्युत्पत्ति अनुसार अस्सी, पचास, चालीस ग्रादि लव्धांक दे दिये जाते हैं, इसी ढंग से अविभाग प्रतिच्छेदों की कल्पना समान अखण्ड पुद्गल स्कन्ध में तिर्यग् अंश कल्पना करते हुये परमाणुओं को गढ़ लिया गया है. वस्तुतः एक भी परमाणु श्रवध, स्वतंत्र, एकाकी नहीं है । इस प्रकार कोई एकान्त पिण्ड-वादी पण्डित कह रहा है उसके प्रति ग्रन्थकार महाराज समाधान कारक ग्रगली वार्तिक को कहते हैं । न जघन्यगुणानां स्याद्वंध इत्युपदेशतः । पुद्गलानामबन्धस्य प्रसिद्धेरपि संग्रहः ॥ १ ॥
निकृष्ट गुण वाले परमाणुओं का बंध नहीं होता है, इस प्रकार सूत्रकार महाराज का उपदेश होने से पुद्गलों के प्रबंध की प्रसिद्धि का भी संग्रह होजाता है। अर्थात् - श्री उमास्वामी महाराज के “ न जघन्यगुणानां " इस सूत्र द्वारा अनेक परमाणुओं का नहीं बंधना भी प्रसिद्ध होजाता है युक्तियों से भी कई परमाणुओं का प्रबन्ध सध जाता है ।
स्कंधान मेत्र केषांचिद्वालुकादीनामबंधोस्तु न परमाणुनामित्ययुक्तं, प्रमाणविरोधात् । " पृथिवी सलिलं छाया चतुरिन्द्रियविषयकर्म परमाणुः षड्विधमेदं भणितं पुद्गल तत्वं जिनेन्द्रेणे " त्यागमेन पारमार्थिकपरमाणुप्रकाशकेन कल्पितपरमाणुवादस्य वाधनात् । परमार्थतो असंबंधपरमाणुवादस्य च परमायुत्पत्तिसूत्रेण निराकरणात् ।
कोई पण्डित कह रहे हैं कि श्रनन्तपरमाणुओं के तदात्मक पिण्ड होरहे बालू, माणिकरेती, रत्नधूल, प्रादि किन्हीं किन्हीं स्कन्धों का ही प्रबंध होरहा है इस सूत्रोपदेश अनुसार जो कतिपय परप्रबंध कहा गया है वह तो नहीं प्रसिद्ध है। आचार्य कहते हैं कि यह आक्षेप करना प्रयुक्त
है, क्योंकि प्रमाणों से विरोध प्रांता है जगत् में केवल स्कन्ध ही नहीं हैं किन्तु परमाणूयें भी द्रव्य हैं । देखिये श्रागम में यों लिखा है " पुढवी जलं च छाया चउरिन्द्रिय-विसय कम्म परमाणू । छन्हि, भेयं भरियं पोग्गलदव्वं जिरा वरेहि " ( गौम्मटसार जीवकाण्ड ) जिसका छेदन, भेदन या स्थानान्तर में प्रापण होसके वे पृथिवी, पत्थर, वस्त्र आदि वादर वादर स्कन्ध हैं । जिसका छेदन, भेदन, तो नहीं होसके किन्तु अन्यत्र प्रापण होजाय वह जल, दूध, आदि वादरस्कन्ध हैं । और जिस पिण्ड का छेदन, भेदन, अन्यत्र प्रारण कुछ भी नहीं होय ऐसे नेत्र - प्राह्म छाया, घाम, आदि पुद्गल पिण्डों को वादर