Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम-अध्याय
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उत्पाद और व्यय का योग होरहा है। अर्थात्-ध्रुवपन से जैसे नित्यपना व्यवस्थित है उसी प्रकार उत्पाद व्ययों करके वस्तु का अनित्य स्वरूप नियत होरहा है । वही गुरुवर्य श्री समन्तभद्राचार्य महाराज ने वृहत्स्वयंभू स्तोत्र में पुष्पदात महाराज की स्तुति करते समय यों कहा हैं कि " नित्यं तदेवेदमिति प्रतीतेन नित्यमन्यत्प्रतिपत्तिसिद्धेः । न तद्विरुद्ध वहिरन्तरङ्गनिमित्तनैमित्तिकयोगतस्ते" तदेव इदं " यह वही है " जो पहिले था ऐसी धाराप्रवाह अनुसार नवनवांशों को ग्रहण करने वाली प्रतीति होते रहने से अर्थ नित्य माना जाता है और यह इससे अन्य है “ सैष न " ऐसी प्रतिपत्ति को सिद्धि होने से अर्थ नित्य नहीं यानी भनित्य समझा जाता है। वहिरंग और अन्तरंग होरही निमित्त परिगतियों के योग से होरहे वे नित्यपन, अनित्यपन, धर्म एकत्र विरुद्ध नहीं हैं, दोनों धर्म वस्तुभूत परिरामनों की भित्ति पर डटे हुये हैं । हे जिनेन्द्रदेव तुम्हारे स्याद्वादशासन में विरोध आदि दोषोंका अवतार नहीं है। इस प्रकार सूत्रकार को वही कहना युक्त पड़ा “ तद्भावाव्ययं नित्यं " और अर्थातपापन्न होगये " अतद्भावेन " सव्यय यों दोनों सूत्र ठीक हैं, इसी सूचित की गई बात को श्री विद्यानन्द प्राचार्य अग्रिम दो वात्तिकों द्वारा दिखलाते हैं।
तभावेनाव्ययं नित्यं तथा प्रत्यवमर्शतः। तद्धौव्यं वस्तुनो रूपं युक्तमर्थक्रियाकृतः ॥ १ ॥ सामथ्यात्सव्ययं रूपमुत्पादव्यय-संज्ञकं ।
सूत्रेस्मिन सूचितं तस्यापाये वस्तुत्वहानितः॥॥ तिस वस्तु का जो भाव है वह तद्भाव है, तद्भाव करके जा व्यय नहीं होना है वह नित्य है क्योंकि तिस प्रकार " यह वही है" सैषः ऐसा एकत्वप्रत्यभिज्ञान होनेसे उस प्रत्यभिज्ञान का विषयभूत होरहा ध्रवपना अर्थक्रिया कारी वस्तु का स्वरूप मान लेना समुचित है ''अर्थक्रिया-कारित्वं वस्तनो रूपं । वहिरंग, अन्तरंग कारणों अनुसार स्वोचित अर्थक्रिया का करते रहना वस्तुका निज स्वरूप है, अर्थक्रिया को किये चले जाने में ध्रुवपना बीज है, अतः इस सूत्र का यह कण्ठोक्त अर्थ हुआ।
सूत्रकार द्वारा कहे विना ही परिशेष न्याय की सामर्थ्य से इस सूत्र में यह भी सूचित किया गया है कि अतद्भाव करके व्ययसहित होरहा अनित्य मो वस्तु का स्वरूप है जा उत्पाद और व्यय संज्ञा को धारे हुये है । वस्तु के उस व्ययसहित स्वरूपका प्रभाव मानने पर वस्तुपन को ही हानि हो जावेगी । अर्थात्-वस्तुका ध्रवप्रना स्वरूप नित्य अंश है और उत्पाद, व्यय, नामक व्यय सहितपना अनित्य अंश है, उत्पाद, व्यय ध्रौव्य, इन तीनों से अर्यक्रियाओं को कर रहो वस्तु अनादि अनन्त काल तक बनी रहती है अनुवृत्तव्यावृत्तप्रत्ययगोचरत्वात्पूर्वोत्तराकारपरिहारा वाप्तिस्थितिलक्षणपरिणामेनार्थक्रियोपपत्तेश्च " अनुवृत्त प्राकार और व्यावृत प्राकार तथा उत्पाद,व्यय, ध्रौव्यों को ले रही वस्तु सामान्य-विशेषात्मक है।