Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
पंचम-अध्याय
युक्त का अर्थ तदात्मकपने कर के व्यवस्थापित होरहा सत् है इस प्रकार "युज समाधौ " इस समाधान यानी तादात्म्य अर्थ को कह रही युज धातु का व्याख्यान यहां किया गया है इस कारण उन उत्पाद आदिकों का सत् से भेद नहीं कहा जाता है। जिससे कि उस सर्वथा भेद पक्ष में होने वाला अनवस्था दोष या उन उत्पाद आदिकों के योगका व्यर्थपना स्वरूप दोष होजाता । अर्थात्- 'स्यान्मतं' करके जो भेद में उत्पाद आदि के योग का व्यर्थपना या उत्पाद प्रादि से सत्व मानने पर पुनः उत्पाद आदि द्वारा सत्व की व्यवस्था करने पर अनवस्था दोष उठाया गया था वह अब सर्वथा भेद के नहीं स्वीकार करने पर लागू नहीं होपाता है, उत्पाद आदिका सत् के साथ कथंचित् अभेद माना गया है। तथा उन उत्पाद आदिकों का सत् से सर्वथा अभेद ही होय ऐसा भी नहीं है जिससे कि लक्ष्य लक्षण भाव का विरोध होजावे क्योंकि कथंचित् भेद भी स्वीकार किया गया है, योग अर्थ को कह रही युज धातु का भी यहां युक्त शब्द में व्याख्यान किया गया है । तदनुसार भेद अर्थ व्यक्त होजाता है।
कि पुनः सतो रूपं नित्यं ? यद्धौव्ययुक्तं स्यात् किं वानित्य ? यदुत्पादव्यययुक्तं भवेदित्यपदर्शयन्नाह।
___ यहां किसी जिज्ञासु का प्रश्न है कि उस सत् का स्वरूप क्या फिर नित्य है ? जिससे कि वह सत् ध्रौव्य युक्त होजाय । अथवा क्या सत् का निज स्वरूप अनत्य है ? जिससे कि वह सत् बेचारा उत्पाद और व्यय से युक्त होजावे ? बताओ। इस प्रकार जिज्ञासा प्रवर्तने पर सिद्धान्त विषय को दिखला रहे श्री उमास्वामी महाराज इस अगले सूत्र को कहते हैं।
तभावाव्ययं नित्यं ॥ ३१ ॥ एकत्व प्रत्यभिज्ञान के हेतु होरहे तद्भाव का जो व्यय नहीं होना है वह नित्य है । अर्थात्जिस स्वरूप करके वस्तु पहिले समयों में देखी गई है उसी स्वरूप करके पुन: पुनः उस वस्तु का ध्रुव परिणमन है ऐसे तद्भाव का अविनाश नित्य माना जाता है, जैसे कि शिवक, स्थास, कोष, कुशूल, घट, कपाल, आदि अवस्थानों में कालान्तर-स्थायी मृत्तिका स्वरूप भावका अव्यय है । यद्यपि मृत्तिका को नित्य कहने में भी जी हिचकिचाता है फिर भी लोक व्यवहार या द्रब्याथिकनय अनुसार नित्यपन का उपचार है वैसे तो त्रिकालान्वयी द्रव्य और उसके सहभावीगुण नित्य हैं यहां प्रकरण अनुसार नौव्य के व्यवस्थापक नित्यत्व का निरूपण कर दिया है. द्रव्य या गुण को परणामीनित्य मानने वाले जैनों के यहां तदभिन्नपर्यायों के ध्रुवत्व अंश की इसी ढंग से संघटना होसकती है।
सामर्थ्याल्लभ्यते द्वितीयं सूत्रं अतद्भावेन सव्ययमनित्यं, इति तस्य भावस्तद्भावस्तत्वमेकत्वं तदेवमिति प्रत्यभिज्ञानसमधिगम्यं तदित्युपगमात् । तेन कदाचिद्व्ययासस्वादन्ययं नित्यं सामादनुत्पादमिति गम्यते व्ययनिवृत्तावुत्पादनिवृत्तिसिद्धेरुत्तराकारोत्पादस्य पूर्वाकारव्ययेन व्याप्तत्वात् तन्निवृत्तौ निवृत्तिसिद्ध ।