Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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ફેઃ
इलाके-वातिक उन रात्रिचर पक्षियों के हृदय में विशेष ढंग की गुदगुदी उत्पन्न करना, दिवा जागर जीवोंको निद्रा लाना, मनुष्य, स्त्री, भैस, गाय, आदि के शरीरों में आलस या विश्राम लेने के भाव आदि कार्यों को उपजाता है, चित्र ( तसवीर ) खींचने में अन्धकार का प्रभाव पड़ता है, रुग्ण अांखों में अन्धकार शक्ति को बढ़ाता है, अनेक सम्मूर्छन जीवों की उत्पत्ति करने में सहायक होता हैं तो इत्यादि अर्थ-क्रियाओं को करने वाला होने से अन्धकार पदार्थ वस्तुभूत है।
सूर्य, चन्द्रमा, दीपक, आदि के निमित्त से जैसे यहां फैल रहे पुद्गल स्कन्ध स्वयं धौले पीले प्रकाशमय परिणम जाते हैं, उसी प्रकार प्रकाशक पदार्थों के हट जाने पर उन्हीं पुद्गल स्कन्धों का ही काला काला पग्गिा मन होजाता है, जैसे कि जाड़ों में सूर्य की धाम फैलने पर जो पुद्गल उष्ण होगये थे थोड़े बादल आजाने पर वे ही पुद्गल झट शीतल होजाते हैं, उष्ण काल में सूर्य के ऊपर स्वल्प बादल पाड़े आते ही उष्णता न्यून होजाती है, मेघवृष्टि को कराने वाली उष्णता न्यारी है । यहां प्रयोजन केवल तत्कालीन झटिति पुद्गलों का परिणति-परिवर्तत होजाने से है । वरफ, प्रोला आदि में कठिनपन की प्रतीति को भ्रान्त ज्ञान कह कर वैशेषिकों ने जैसे स्वकीय मन्तव्य की हंसी कराई है, उसी प्रकार अन्धकार को तुच्छ अभाव मानने वाले वैशेषिकों के ऊपर परीक्षक या वैज्ञानिक विद्वानों को हंसी आती है।
शीत का अभाव उष्ण नहीं होसकता है. क्योंकि उष्ण से दाह,सन्ताप, आदि कार्य होरहे देखें जाते हैं, इसी प्रकार उष्ण का प्रभाव शीत भी नहीं बन सकता है, क्योंकि शीत से वरफ जम जाना, अरहर के पेड़, आम के पौधे आदि वनस्पतियो का झुलस जाना, तप्त लोहे सोने आदि का जम जाना शीताङ्गहेतुक मृत्यु काल की उपस्थिति होजाना आदि अनेक कार्य होरहे देखे जाते हैं। तथा हलकापन का अभाव भारीपन और भारी का अभाव हल - पन इनमें विनिगमना का विरह होजाने से दोनों वस्तुभूत पदार्थ मानने योग्य हैं, नरम और कठोर दोनों का सद्भाव मानने पर ही उनके योग्य अर्थक्रियायें हो सकेंगी।
. इसी प्रकार स्निग्ध और रूक्ष दोनों की न्यारी न्यारी प्रक्रियायें और अलग अलग प्रतिपत्तियां होरहीं देखी जाती हैं,प्रतः स्निग्ध, रूक्ष दोनों गुणों का सद्भाव मान लेना अनिवार्य है । यद्यपि जैनसिद्धान्त अनुसार रुक्ष और स्निग्ध कोई स्वतंत्र नित्य गुण नहीं हैं, किन्तु स्पर्श गुण की पर्यायें ही रूखापन और चिकनापन हैं, कथंचित् अभेद नामका सम्बन्ध होजाने से क्वचित् गुण को पर्याय : सहभावी) और पर्याय को गुण कह दिया जाता है। जैसे कि चेतना गुण के परिणाम होरहे ज्ञान को अनेक स्थलों पर गुण स्वरूप करके कह देते हैं । पर्यायों में किसी प्रधान होरही पर्याय को गुण कह देना अनुचित नहीं है, पर्याय से ऊची पदवी गुण है । ब्राह्मणों को भूसुर यानी पृथवी का देव और क्षत्रियों को भूपसिंह या रणवीरसिंह, वैश्यों को धनकुवेर आदि उपाधियों से भूषित कर दिया जाता है । गुरण की प्रशंसा करते हुये कभी एक गुण को पूरा नभ्य कह दिया जाता है, जैसे कि कसूरी कपूर