Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पसोक-वातिक
सूत्र का अर्थ यह है, कि स्निग्धपन और रूक्षपन का योग होजाने से इन पुद्गलों का बंध होजाता है, और बंध होजाने से वह प्रसिद्ध स्कन्ध उपज बैठता है, यों इस 'स्निग्धरूक्षत्वावधः, सूत्र में निरूपण है, अत: उस बंध का अभाव या स्कन्ध का प्रभाव ध्वस्त कर दिया गया है। अर्थात्-बौद्ध पण्डित न तो बंध को मानते हैं, और न स्कन्ध को स्वीकार करते हैं, इस सूत्र द्वारा दोनों के प्रभाव का खण्डन कर दिया है। कारण कि जिस प्रकार चिकने पदार्थ सचिक्कण पदार्थों के साथ बंध जाते हैं, तिसी प्रकार रूखों के साथ रूखे पदार्थ और स्निग्ध पुद्गल भी बंध कर बैठ जाते हैं । अथवा जैसे रूखों को चिकने पदार्थ बांध लेते हैं, या चिकने चिकनों को बांध लेते हैं, उसी प्रकार रूखे पुद्गल भी रूखे या चिकने पुद्गलों को बांध बैठते हैं, यों बंध द्वारा स्कन्ध की सिद्धि होजाने के बाधक प्रमाणों की हानि है । अर्थात्- जगत् में स्निग्ध का स्निग्ध के साथ, स्निग्ध का रूक्ष के साथ, रूक्ष पुद्गल का स्निग्ध पुद्गल के साथ, रूक्ष का रूक्ष के साथ, बंध कर अनेक स्कन्ध बन रहे निर्वाध प्रतीत होरहे हैं।
नेकदेशेन कात्स्न्यन बंधस्याघटनात्ततः।
कार्यकारणमाध्यस्थ्यक्षणवत्ताद्वभावनात् ॥३॥ जिस कारण से कि संसग कर बंधने वाले पदार्थों का एक देश करके अथवा सम्पूर्ण देशवृत्ति पने करके बंध होजाने की घटना नहीं होसकती है. तिस कारण से कार्य क्षण (क्षणिक काय स्वरूप स्वलक्षण ) और कारणक्षण ( पूव समयवत्तो क्षणिक कारण स्वरूप स्वलक्षण ) के साथ उनके मध्य में स्थित होरहे संसर्गी क्षणिक स्वलक्षण के समान उन स्निग्ध रूक्ष पदार्थों का भी परस्पर में बंध जाने का विचार कर लिया जाता है । अर्थात्-अर्थों में कार्य कारणभाव को मानने वाले सौत्रान्तिक बौद्धों के यहां जैसे उन कार्य कारणों के मध्यवर्ती सन्तान की एक-देशपने करके या सर्वदेशपने करके ससर्ग नहीं घटित होने पर भी मध्यस्थता बन जाती है, उसी प्रकार जैनों के यहां अवयवसहितपन और अनवस्था दोष को टालते हुये एकदेशेन या सर्वात्मना सम्बन्ध की व्यवस्था नहीं कर केवल स्निग्धत्व रूक्षत्व, परिणतियों अनुसार परमाणुगों का बधजाना निर्णीत करलिया गया है।
.. यथैककार्यकारणक्षणाभ्यां तन्मध्यस्थस्यैकदेशेन संबंधे सावयवत्वमनवस्था च तदेकदेशस्याप्येकदेशांतरेण संबंधात् : कास्ये संबंधे पुनरेकक्षणमात्रसंतानप्रसंगः कार्यकारणभावाभावश्च सर्वथैकस्मिस्तद्विरोधात् । कि तर्हि ? संबध ऐवेति कथ्यते। तथा परमाणुनामपि युगपत्परस्परमेकत्वपरिणामहेतुबंधो नेकदशेन सर्वात्मना वा सावयवत्वानवस्थाप्रसंगादेकपरमाणुमात्रपिण्डप्रसगाच्च । कि तर्हि ? पिंड एव स्नग्धरूक्षत्वविशेषायत्तत्वात्तस्य तथा दर्शनात सक्तुतोयादिवत् ।
बौद्धमत की बात है, कि जिस प्रकार एक कार्यक्षण और दूसरे एक कारणक्षण के साथ उस मध्य में स्थित हो रहे अनुस्यूत कार्यकारणभावापन्न प्रथ.का.. यदि एकदेश.से सम्बन्ध माना जायेगा तो