Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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लोक-वातिक
प्ररूपा गया रूप अनित्य है, यह सिद्ध होही जाता है, तिस कारण वह नित्यपन या अनित्यपन धर्म एक अखण्ड सत् प्रात्मक वस्तु में पाये जा रहे विरुद्ध नहीं । जो हो रूप नित्य है, वही अनित्य है, इस प्रकार कहने में तो विरोध दोष की सिद्धि है, किन्तु विकल देश या विकलादेश कथन के अधीन होकर नय की प्ररूपणा करने पर सभी प्रकारों से विरोध दोष का स्याद्वादसिद्धान्त में अवतार नहीं है।
नन्वेवमुमयदोषाधनुषंगः स्यादित्यारेकायामिदमाह।
यहां किसी का प्रश्न है, कि इस प्रकार एक वस्तु में नित्य, अनित्य दो रूपों को मानने पर उभय दोष, संकर आदि पाठ दोषों के आजाने का प्रसंग होगा अर्थात्-भेदाभेद या नित्यानित्य पक्ष में उभय, विरोध, वैयधिकरण्य, संकर, व्यतिकर, संशय, अनवस्था और अप्रतिपत्ति हेतुक प्रभाव ये पाठ दोष पाजावेंगे? नित्यपन, अनित्यपन, दोनों प्रतिकूल धर्मों को एक वस्तु का रूप मानने पर उभय दोष है, जैसे धर्म, अधर्म दोनों का उभय नहीं होसकता है, 'उभौ अवयवौ यस्य तदुभयं' शुद्ध प्रशुद्ध आत्माओं का ऐक्य जैसे अलीक है, ' उभौ आत्मानौ यस्य ' । उसी प्रकार नित्य अनित्य रूपों की एक वस्तु में निष्ठा अलीक है। • विधि और निषेध स्वरूप नित्य अनित्य रूपों का एक अभिन्न वस्तु में असम्भव है, अतः शीत स्पर्श और उष्णस्पर्श के समान विरोध है।
३ नित्य रूप का अधिकरण न्यारा होना चाहिये और सर्वथा भिन्न माने गये अनित्य का अधिकरण्य भिन्न होना चाहिये यों दोनों रूपों को एक स्थान पर ठहरा देने से वैयधिकरण्य हुआ एक म्यान में दो तलवारें नहीं ठहर पाती हैं । तथा जिस स्वरूप से नित्यपन है, उसी स्वरूप से प्रनित्यपान मानने पर भी विरोध अथवा वैयधिकरण्य दोष घुस पड़ते हैं।
४ वस्तु के जिस स्वरूपसे नित्यपन माना गया है, उसी स्वरूप से अनित्यपन क्यों नहीं होजाय या जिस स्वरूप करके अनित्यपन है, उसी स्वरूप करके नित्यपन प्रतिष्ठित होजाय, सहोदर भाइयों में अपना तेरई का प्रवेश नहीं होना चाहिये, यों धर्मों के अवच्छेदकों का यौगपद्य या मिश्रण होजाने से संकर दोष हुआ जाता है।
५ जिसस्वरूप से अनित्यपन है, वस्तु के उसी स्वरूप से नित्यपन क्यों न होजाय ? और जिस स्वरूप से नित्यपन है, उस स्वरूप से अनित्यपन भी होजाओ, यों परस्पर विषयगमन होजान से व्यति. कर दोष हा।
६ वस्तुको नित्य, अनित्य-प्रात्मक मानने पर असाधारण स्वरूप करके निश्चय नहीं किया जासकता है,अतः संशय दोष ठहरा । ७ जिस स्वरूपसे नित्यपन है, उसी स्वरूप से कथंचित् अनित्यपन मानने पर फिर उन दोनों स्वरूपों का वस्तु के साथ अभेद माना जायेगा, पुनः एक एक उम सत रूप में नित्यपन अनित्यपन की पल्पना करते हुये आकांक्षा बढ़ती हुई रहने के कारण अनवस्था दोष माजावेगा।
एक वस्तु में नित्यपन किस प्रकार माना जाय ? और साथ ही अनित्यपन भी कैसे माना