Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम श्रेष्याय
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से अन्तिम माना गया शब्द पुनः अन्य शब्दों की लहरों को नहीं उपजाता है, जिससे कि शब्द की संतति का पर्यन्तपना नहीं होसके ।
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यों कहने पर तो ग्रन्थकार कहते हैं, कि यदि शब्द को उपजाने में वायु को इतनी प्रधानता दी जाती है, तब तो शब्द को वायुतत्व से बना हुआ मान लिया जाम्रो समवायिकारण होकर कल्पना किये गये आकाश तत्व से क्या लाभ है ? यों और कहने पर वैशेषिकों को अन्यमतियों के मत को स्वीकार कर लेने का प्रसंग आवेगा | जैनमत अनुसार किसी किसी शब्द को वायुनिर्मित कहने में कोई क्षति नहीं है, पीपनी बजाने, वांसरी बजाने, डकार लेने, छींकने, आदि के शब्दों में वायु ही शब्दस्वरूप से परिणम जाती है, जिसमें कि शब्दयोग्य वर्गरणायें भरी हुई हैं । आहार करने योग्य या पेय पदार्थों में भी तो प्रतीन्द्रिय वगणायें घुसी हुई हैं । शब्दानुविद्ध वादी पण्डित भी "स्थानेषु विवृत्ते वाय कृत-वर्णपरिग्रहः, आदि स्वीकार करते हैं किन्तु शब्द को प्राकाश का गुण मानने वाले वैशेषिक कथमपि शब्द को वायु नामक उपादान कारण से बन रहा नहीं मानते हैं, अतः शब्द को वायवीय मानने पर वैशेषिकों के ऊपर मतान्तर दोष आता है, यहां वैशेषिकों को लेने के देने पड़ जाते हैं । "दोज का बदला तीज" है । ऐसा लौकिक न्याय है, दूसरी बात यह है, कि वायु का अडंगा लगा देने पर अब शब्द से शब्द की उत्पत्ति नहीं होसकेगी क्योंकि उस शब्द को भी वायुसंयोग से जन्य मान लिया जावेगा जब अत्यन्त परोक्ष प्रकाश की कल्पना करली जाती है, तो शब्दों के उत्पत्तिस्थल में क्लृप्त ( सब के यहां आवश्यक मानी जा रही वायु की कल्पना करना तो अतीव सुलभ है ।
सत्येवाकाशे शब्दस्योत्पत्तिस्तत्समवायिकारणं न तत्प्रतिषेधहेतवो गमकाः स्युर्वा - धिताषयत्व देत मतं तदा शब्दः स्वद्रव्यपर्यायो वाह्यान्द्रयप्रत्यक्षत्वात्स्पर्शादिवदित्यनुमानात्तस्य पुद्गलपर्यायत्वे सिद्ध तत्प्रतिषेच हेतवोनुमानवाधितविषयत्वादेव गमकाः कथमुपपद्येरन् १
वैशेषिक कहते हैं, कि आकाश के होने पर ही शब्द की उत्पत्ति देखी जाती है अतः वह आकाश इस शब्द का समवायिकारण हैं, ऐसे उस आकाश का निषेध करने वाले हेतु अपने साध्य के ज्ञापक नहीं होसकेंगे क्योंकि उनका विषय तो वाधित होजायगा, अतः प्रकाश की सिद्धि होचुकने पर साध्य की वाधा उपस्थित होजाने से वे हेतु कालात्ययापदिष्टहेत्वाभास होजांयगे । यों वैशेषिकों का मत होगा । तब तो हम जैन कहते हैं, कि शब्द (पक्ष) स्पशवाले द्रव्यों का पर्याय है, ( साध्य ) वहिरंग इन्द्रियों से जन्य हुये प्रत्यक्ष का विषय होने से ( हेतु ) स्पर्श, गन्ध आदि के समान ( अन्वयदृष्टान्त ) इस अनुमान से उस शब्द का पुद्गल द्रव्य का पर्याय होना सिद्ध होचुकने पर पुनः वैशेषिकों की ओर से उस स्पर्शवान् द्रव्य की पर्याय होने का प्रतिषेध करने वाले हेतु भला अनुमानप्रमारण करके स्वकीय● विषयभूत साध्य के बाधित होजाने से ही किसी प्रकार ज्ञप्तिकारक होसकेंगे ? । अर्थात् - हम प्रकाश द्रव्यं का खण्डन नहीं करते हैं, किन्तु प्रकाश को शब्द का उपादान कारण नहीं मानते हुये स्पर्शवान् द्रव्यों के उपादेय होरहे शब्द को स्वीकार करते हैं । ऐसा दशा में वैशेषिकों के हेतु वाधित हेत्वाभास होते हैं।
एतेन यदुक्तः सोग. - एकद्रव्याश्रितः शब्दः सामान्यविशेववच्वे सति बाह्य केन्द्रिय