Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम-अध्याय
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प्रोकार इस पद से औषधि इस पद का अर्थ भी जान लिया जाओ, ऐसे संशयों का निराकरण करने के लिये दकार के अतिरिक्त अन्य शब्दों का उच्चारण करना उचित ही है। वैयाकरण कहते हैं, कि यह तो नहीं कहना क्योंकि यों तो कई वार प्राबृत्ति करके वाक्यों के अर्थ की प्रतिपत्तियों के होजाने का प्रसंग आवेगा जबकि अन्य वर्गों में भी उस ही अर्थ का प्रतिपादन किया जा चुका है।
। अर्थात्-एक शब्द कई वाक्यों में आकर सुना जाता है। जब अनेक वाक्यों में प्रत्येक वर्णों का सांकर्य होरहा है, तो अनेक वार कई वाक्यार्थों की प्रतिपत्ति होजांना अनिवार्य हैं । 'देवमर्चयेत्, कुदेवम् नार्चयेत्. तिष्ठति प्रतिष्ठते, पण्डितानां पतः पण्डितंमन्य, अभिनन्दन नाभिनन्दन, गौः ( पशु ) गौः ( वाणी ) आदि अनेक समान अनुपूर्वी वाले शब्दों करके कई वार उन उन अर्थों की प्रतिपत्ति होना बन बैठेगा जो कि इष्ट नहीं है । अतः प्रत्येक वर्ण तो अर्थ का प्रत्यायक नहीं होसकता है।
न च ममुदितानामे वाक्यार्थप्रतिपत्तिहेतुत्वं प्रतिक्षणं विनाशित्वे समुदायासंभवात् । कम्पितस्य तत्समुदायस्य तद्धेतुत्वेऽतिप्रसंगा।
वैयाकरण ही अभी प्राक्षप किये जा रहे हैं कि पद या वाक्य में समुदित हो रहे ही शब्दों को भी वाक्यार्थ की प्रतिपत्ति का निमित्तपना नहीं बन पाता है क्योंकि नैयायिक, वौद्ध या जनों के यहां भी प्रत्येक क्षण में शब्द का विनाश होजाना मानने पर उन नष्ट होचुके शब्दों का उस क्षण- . वर्ती एक शब्द के साथ समृदाय नहीं बन सकता है दैशिक समुदाय बनाने के लिये एक समय में सजातीय अनेक पदार्थों का विद्यमान रहना आवश्यक है जब कि बौद्धों ने " द्वितीयक्षणवतिध्वंस प्रतियोगित्वं क्षणिकत्वं " पहिले क्षण में आत्म-लाभ होकर दूसरे क्षण में विनश जाना क्षणिकत्व माना है और नैयायिकों ने "तृतीयक्षणवतिध्वंस-प्रतियोगित्व क्षणिकत्वं,, पहिले क्षण में उपज कर दूसरे क्षण में विद्यमान रहते हुये शब्द का तीसरे क्षण में विनशजाना क्षणिकपन स्वीकार किया है हां जैनों ने शब्द का कतिपय प्रावलि कालों तक ठहरना स्वीकार किया है, वस्त्रों को धो रहे धोबी के मोंगरा का शब्द कई प्रावलि के पश्चात् सौ हाथ दूर खड़े हुये श्रोता को सुनाई पड़ता है, रात के समय तोप दगने पर प्रकाश दर्शन के अन्तर्मुहूर्त पश्चात् कोस दो कोस दूरवर्ती श्रोता को उसका शब्द सुनाई देता है भले ही यहाँ शब्द की लहरों की कल्पना कर उत्पाद, विनाश-शाली अन्य ही शब्दों का श्रोता के कान तक पहुँचना माना जा सकता तथापि सुगन्धित पदार्थ का निमित्त पाकर दूर तक के सुगन्धित बन गये लम्बे, चौड़े, पिण्ड के समान अथवा अग्नि को निमित्त पाकर चारों ओर फैल रहे उपादान कारण पुद्गल स्कन्धों की उष्णपरिणति होजाने के समान दूर तक उसी शब्द का सुनना निर्णीत किया जाता है अन्यथा गोम्मटसार जीवकाण्ड में "अट्ठसहस्स धणूणं विसया दुगुणा असण्णित्ति,, और “ सण्णिस्स वार सोदे,, इस प्ररूपण अनुसार असंज्ञी जीव के कर्ण इन्द्रिय का विषय पाठ हजार धनुष दूर तक का शब्द कहा गया है तथा संज्ञी जीव का कान बारह योजन तक के शब्द को सुन लेना. माना गया है, यह सिद्धान्त भला रक्षित कैसे रह सकेगा ?