Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वातिक
होजाने का विधान होचुका है, फिर भी नियम की सिद्धि कराने के लिये “भेदादणुः" यों वह सत्र वढ़िया कहा जा रहा है तिस कारण सिद्ध होजाता है कि भेद से ही परमाणू उपजता है संघात अथवा भेदसंघातों से परमाणू नहीं उपजता है। जैसे कि तीनो से या भेद से अथवा भेद संघातों से स्कन्ध उपजता है ( व्यतिरेक दृष्टान्त )। भेद से अणू ही उपजे ऐसा प्रयोग व्यवच्छेदक नियम करना इष्ट नहीं है । अतः भेद से स्कन्ध की उत्पत्ति होजाने की निवृत्ति नहीं होसकी हां भेद से ही अणु की उत्पत्ति होना इस पूर्व अवधारण को इष्ट किया गया है उत्तरवर्ती अवधारण करना ठीक नहीं है।
अर्थात- एवकार तीन प्रकार का माना गया है, जो कि अन्ययोगव्यच्छेद, अयोगव्यवच्छेद और अत्यन्तायोगव्यवच्छेद इन तीन अर्थों में प्रवर्त रहा है " पार्थ एव धनुर्धरः " यहां विशेष्य के साथ लग रहा एव अर्जुन से भिन्न वीरों में प्रकृष्ट धनुर्धरपने का व्यवच्छेद कर देता है " शखः पाण्डुर एव" यहां विशेषण के साथ जुड़ रहा एवकार शंख में पाण्डुरत्व के प्रयोग का व्यवच्छेद कर देता है " नीलं सरोजं भवत्येव " यहां क्रिया के साथ लग रहा एवकार कमल में नीलत्व के अत्यन्त प्रयोग का व्यवच्छेद करता है । तब तो कहीं नीला और क्वचित् पीला, लाल आदि भी कमल होता है यह सध जाता है, प्रकरण में 'भेदात अणुः" यहां पंचमी विभक्ति का अर्थ हेतृत्व मान लिया तो "भेदहेतका या उत्पत्तिस्तत्प्रतियोगी अणुः" यों शाब्दवोध होगा अतः “भेद-हेतुक एव अणुः" यह विशेषणसंगत एवकार लगाना अच्छा दीखता है, भेदहेतुकः अणूरेव यह विशेष्य संगत एव अन्ययोगव्यवच्छेदक ठीक नहीं । पहिले यही एवकार इष्ट किया गया है, विवक्षा की विचित्रता से विशेषण भी विशेष्य होजाता है।
विभागः परमाणनां स्कंधभेदान्न वाणवः। नित्यत्वादुपजायते मरुत्पथवदित्यसत् ॥ २॥ संयोगः परमाणूनां संघातादुपजायते ।
न स्कंधस्तद्वदेवेति वक्तुशक्तेः परैरपि ॥३॥ यहां वैशेषिक आक्षेप करते हैं कि स्कन्ध का भेद होजाने से परमाणूयें नहीं उपजती हैं। क्योंकि पृथिवी, जल तेज, वायु, द्रव्यों की जाति से चतुर्विध और व्यक्ति अपेक्षा अनन्तानन्त परमाणुयें नित्य हैं, परमाणूत्रों का उत्पाद और विनाश नहीं होता है हां क्रिया आदि करके स्कन्ध का विदारण होजाने से परमाणुओं का विभाग गुण उपज जाता है " क्रियातो विभागः" विभाग गुण तो कारणों से जन्य माना गया ही है। आकाश के समान नित्य परमाणुओं की छेदन से उत्पत्ति नहीं होसकती है। प्राचार्य कहते हैं कि यह तुम वैशेषिकों का कहना प्रशंसायोग्य नहीं है,झूठा है, निंदनीय दूषणीय है क्योंकि स्कन्ध के विषय में तुम्हारे ऊपर भी यो प्राक्षप किया जा सकता है कि परमाणों का सम्मिश्रण होजाने से स्कन्ध नहीं उपजता है किन्तु परमाणुओं का पृथग्भूत संयोग ही उपज जाता है