Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम - श्रध्याय
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तथा स्थविष्ठपिंडेभ्योऽणिष्ठी निविडपिण्डकः प्रतीतिगोचरोस्तु स यथासूत्रोपपादितः ॥ ८ ॥
यदि वैशेषिक उक्त अनुमानों में दोष लगाते हुये यों कह बैठें कि कपास की उठी हुई रूई को घना कर सूक्ष्म पिण्ड बन जाता है, बड़ी रूई की गठरिया को दबा कर छोटी पोटली बना ली जाती है, काटनप्रेसमिल द्वारा पांच मन रूई के बड़े पिंडों की छोटी गांठ बनाली जाती है. अतः रुई की गांठ में छोटापन हेतु रह गया किन्तु वहां बड़े स्कन्ध का विदारण नहीं है, प्रत्युत वहां गांठ से चौगुनी, पचगुनी, बड़ो कई पुरियों का संघात है, इस कारण जैनों के सुक्ष्मत्व हेतु का रूई के दवे हुये घने पिंड करके व्यभिचार हुआ । आचार्य कहते हैं, कि यह तो वैशेषिकों को नहीं कहना चाहिये क्योंकि यों तो तुम वैशेषिकों के दिये हुये अन्य स्कन्धत्व हेतु का भी समान रूप से व्यभिचार दोष प्राता है, देखिये जैसे शिथिल प्रवयव वाले कपास पिंडों के संघातसे दबाया जाकर घन अवयव वाले कपात पिण्ड की अच्छी उत्पत्ति होजाती है, उसी प्रकार अधिक स्थूल पिण्डों से अतिशय सूक्ष्म होरहा घन पिण्ड उपजता प्रतीतियों का विषय होरहा समझा जाम्रो । अर्थात् स्थूल पदार्थों के संघात ( सम्मिश्रण ) से अल्पपरिमाणवाला घन पिण्ड उपज जाता है ।
बड़े बड़े रूई के घनीभूत पिण्डों से जा छोटे छोटे घन पिण्ड उपजे हैं, उनको तो स्कधभेदपूर्वक ही कहा जायगा, सूक्ष्म मीमांसा करने पर प्रतीत होजाता है, कि वृक्ष में लगे हुये कपास के टेंटों को कर कुछ बड़े परिमाणवाली रुई उपज जाती है, रुई को देशान्तरों में भेजने के लिये पुन: दबाकर के घनी गांठ बना ली जाती है, गांठ को खोल कर पुनः फैला लिया जाता है, फैली हुई रुई को पुनः तांत या दूसरे यंत्र से पीन कर फुला लिया जाता है, रुई के फूले हुये रेशों को बट कर सूत बनाने के लिये पुन: चरखा द्वारा ऐंठा जाता है, इस प्रक्रिया में कई बार छोटे से बड़े और बड़े से छोटे अवयव बनते रहे हैं. सुवर्ण के भूषणों को कई बार तोड़ फोड़ कर बनाने में भी छोटों से बड़े और बड़े से छोटे अवयव बनाने पड़ते हैं, तोल समान हाते हुये भी गेंहू से गेंहू का चून अधिक स्थान को घेरता है, अतः छोटे प्रवयवों के संघात से जैसे बड़े अवयव की उत्पत्ति मानी जाती है, उसी प्रकार बड़े अवaat के विदारण से छोटे अवयवों या परमाणूत्रों की उत्पत्ति को स्वीकार कर लेना चाहिये, सर्वज्ञ की प्राम्नाय अनुसार कहे गये " भेदादणुः " इस सूत्र में उसी सिद्धान्त का ही तो प्रतिपादन किया गया है, जो कि बड़े पिण्ड के छेदन, भेदन, से छोटे अवयव का उत्पाद होना जगप्रसिद्ध है । विवादापनोवयवी स्वपरिमाणादणु रिमाकारणारब्धावयवित्वात् पटवदिति यैरुक्तमनुमानं ते वदन्त्वदमपि विवादगोचराः सूक्ष्माः स्थूल भेदपूर्वकाः सूक्ष्मत्वात् पटखण्डादिव - दिति । बनकर्पासपिंडेन सूक्ष्मेण शिथिलावयवकपसपिंड संघात रब्धेन सूक्ष्मत्वस्य हेतोर्व्यभिचारान्नैवं वदतीति चेत्, समानमन्यत्र तेनैव स्व-रिमाणान्महापरिमाण कारण। रब्धेना
नादयांव