Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक - वार्तिक
अधिक परिमाण वाला होय यह तो उचित ही है, किन्तु श्रवगाहना शक्ति अनुसार वह संघात जन्य अवयवी अपने कारणों के परिमार से न्यून परिमाण और सम परिमाण वाले प्रदेशों में भी सानन्द निवास करता है ।
तथैव भेद और संघात दोनों से उपज रहा श्रवयवी अपने कारणों के परिमारण के समान परिमाण का धारी भले ही होय किन्तु भेद- संघात जन्य अवयवी स्वकीय कारण परिमारण से अधिक और न्यून होरहे श्राकाश प्रदेशों में भी ठहर जाता है, जब कि एक उत्संज्ञा संज्ञा नामक छोटा श्रवयवी भी फैलना चाहे तो तीनों लोकों में विखर जाता है, तब भी लोकाकाश के एक एक प्रदेश पर अनन्तानन्त परमारों के ठहरने का बांट आता है, तथा तीनों लोक की सम्पूर्ण अनन्तानन्त प्रणुयें भी एक प्रदेश में समा सकती हैं, तो फिर उक्त तीनों कारणों करके जन्य अवयवियों की स्व कारणों के अधिकरण-स्थल से न्यून, अधिक, और सम प्रदेशों में तीन प्रकार से ठहर जाना प्रसंदिग्ध हो जाता है ।
जिस प्रकार श्रवयवियों के उपजने श्रौर ठहरने की व्यवस्था निर्णीत है, उसी प्रकार वह भेद संघात दोनों से उपज रहा श्रवयवी चक्षुः इन्द्रिय द्वारा देखा जा चुका है, क्योंकि बाधक प्रमाणों का भाव है । बात यह है, कि जगत् के अनन्तानन्त श्रवयवियों का अनन्तवां भाग नेत्रों द्वारा देखने योग्य है, चक्षु इन्द्रिय से देखे जाने में विषय होरहे अवयवी की विशिष्ट रचना होजाना प्रावश्यक है, अन्य इन्द्रियों की अपेक्षा नेत्र के लिये सामग्रीकी योजना विशेष रूप से करनी पड़ती है, नेत्र द्वारा ज्ञान करने
भ्रान्ति के कारण भी अनेक विघ्न उपस्थित होजाते हैं तभी तो भिन्न भिन्न ढंगों के उपनेत्र चश्मे ) द्वारा मनुष्य छोटे बड़े पदार्थोंको बड़ा छोटा या चमकदार देख लेते हैं, दुरबीन सूक्ष्मबीन आदि नेत्र सहायक यंत्रों से हुये ज्ञान सूक्ष्म दृष्टि से विचारने पर कुछ भागों में भ्रांति रूप निर्णीत होते हैं किन्तु वे ज्ञानविवेकी जीव को सम्यग्ज्ञान की प्रोर ले पहुंचाते है । सिनेमा में चित्रपट देखना या अन्य प्रतिविम्बों ( तसवीरों ) का देखना भी भुलावा देते देते विचारशील पुरुषकी समीचीन प्रतीति करा देता है, शेष स्थूल-बुद्धि पुरुषों या रागी को उनके द्वारा भ्रान्तिज्ञान बने रहने में ही बड़ा आनन्द आता रहता है । चक्षु इन्द्रिय से किस किस प्रकार विषय का ग्रहण होता है, इस विषय का एक बड़ा भारी पोथा बन सकता है । प्रकररण में सूत्र द्वारा श्राचार्य महाराज ने भेद संघातों से बने हुये विशेष अवयवी का चक्षु इन्द्रिय से ग्राह्य होजाना कह दिया है, उसीको श्रौर भी स्पष्ट करके श्री विद्यानन्द श्राचाय अग्रिम बात द्वारा कह रहे हैं ।
चाचुषोवयवी कश्चिदभेदात्संघाततो द्वयात् ।
उत्पद्यते ततो नास्य संघातादेव जन्मनः ॥ १ ॥
कोई कोई अवयवी तो भेद और संघात दोनों से चक्षु इन्द्रिय द्वारा ग्रहण करने योग्य उपज जाता है, तिस कारण इस चक्षु इन्द्रिय ग्राह्य अवयवी का केवल संघात से ही जन्म होना हम स्याद्वा