Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम - श्रध्याय
सत्ताओं में पुनः सत्ता के मानने की श्रावश्यकता तो नहीं है,
यदि वैशेषिकों के मत अनुसार स्वयं असत् पदार्थों का सत्ता के योग से सत् होजाना माना जायगा तो दो सत्ताओं को सती बनाने के लिये तीसरी महासत्ता माननी पड़ेगी और वह निराला महासामान्य सत्व भी प्रसत् स्वरूप होगा तव तो वह द्रव्य नहीं होसकता है, जैसे कि सर्वथा असत् खरविषण कोई द्रव्य नहीं है, हां उस महासामान्य को यदि सत् वरूप मान लोगे तो यही सिद्धान्त सिद्ध हु कि वह सत्ता एक ही है, सत् इस लक्षरण का धारी द्रव्य ही है, अथवा जब सत्ता एक ही है, तो इस कारण सिद्ध हुआ कि सत् लक्षण वाला द्रव्य ही है, पर्याय को भी प्रन्य पर्यायों के स्वरूप
सपना प्रतीत होरहा है, घट, पट, मतिज्ञान. सुख दुःख प्राम्रफन केला, आदि पर्यायों में अन्य काला, पीला, विभाग प्रतिच्छेद, खट्टा मीठा, श्रादि पर्यायों के उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य अनुसार सत्पना है, अकेले उत्पाद अश या विनाश अंश अथवा एक अविभाग प्रतिच्छेद में भले ही सत् पना नहीं होय कोई क्षति नहीं पडती है, प्रभेद या अभेद उपचार से एक एक प्रदेश या उपांशों में सत्पना घटित होजाता है, स्याद्वाद सिद्धान्त अक्षुण्ण है ।
तत एव सल्लक्षणमेव द्रव्यं शुद्धमित्यवधार्यते, तस्यासद्रूपत्वाभावात् प्रागभावादेरपि भावांतरस्वभावस्यैव सदसच्वसिद्धेः । सत्प्रत्ययाद्विशेषा द्विशेष- लिंगाभावादेक। सचेति परैरष्यभिधानात् केवलधौव्ययुक्तमेव सदित्येकांत पवच्छेदनार्थमुत्पादव्यययुक्तमित्युच्यते, तस्यानंत पर्यायात्मकत्वात् पर्यायाणां चोत्पादव्ययधीव्ययुक्त्वात् । न नित्यं सदेकमस्त्यनुस्यूता कारं तस्यासद्रूपव्यावृच्या कल्पितत्वात् स्वलक्षणस्यैवात्पादव्ययवनः सत्व दिल्येकांतव्य च्छित्तये धौव्ययुक्तमित्यभिभाषणात् ।
तिस ही काररण से "सद्द्रव्यलक्षणं" इस रहिले सूत्र में पूर्व श्रवधारण कर सत् लक्षण वाला ही द्रव्य शुद्ध है, यो सत् एव द्रव्य लक्षणं, अवधारण कर लिया जाता है, उस द्रव्य को असत् स्वरूप पना नहीं है, वैशेषिकों के यहां प्रागभाव, ध्वंस, प्रादि को सर्वथा भावों से भिन्न असत् पदार्थ मान रक्खा है, सो ठीक नहीं है, अन्य मिट्टी, कपाल, भूतल प्रादि भावों के भाव स्वरूप होरहे ही प्रागभाव श्रादि का भी कथंचित् सत् असत् पना सिद्ध कर दिया गया है। अर्थात् मृद आदि द्रव्य या उपादान होरहीं पर्यायें ही घट प्रादि कार्यों का प्रागभाव है, तथा उपादेय की उत्पत्ति ही उपादान का ध्वंस है, स्वभावान्तरों से स्वभाव की व्यावृत्ति होजाना परिणाम अन्योन्याभाव है, और प्रगुरुलघु गुण अनुसार कालिक भेद को बनाये रखनेवाली परिणतियें प्रत्यन्ताभाव है, यों भावस्वरूप ही प्रभाव है, तुच्छ निरुपाय कोई प्रभाव पदार्थ नहीं है ।
दूसरे विद्वान् वैशेषिकों ने भी वैशेषिक दर्शनके प्रथम अध्याय सम्बन्धो सत्रहवें "सदिति लिजाविशेषाद विशेषलिंगाभावाच्चैको भाव:,, इस सूत्र में सत्ता को एक कहा है, जब कि वय, गुल,
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