Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम-अध्याय होना सिद्ध होचुका है, और अणुषों की उत्पत्ति भेद से ही होरही कही जा चुकी है,ऐसी दशामें तीसरे उपाय माने गये भेद और संघात का कोई प्रयोजन शेष नहीं रहता है, ऐसा आक्षेप प्रवर्तने पर उस एक समय में हुये भेद, संघात, दोनों से स्कन्ध की उत्पत्ति होजाने के ग्रहण का प्रयोजन समझाने के लिये श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्र को कहते हैं।
भेदसंघाताभ्यां चातुषः ॥ २८ ॥ एक ही समय में हुये भेद और संघात से वह स्कन्ध चक्षु-इन्द्रिय द्वारा ज्ञातव्य होजाता है। अर्थात्- जो स्कन्ध प्रथम चक्षु इन्द्रिय से ग्रहण करने योग्य नहीं था वह कुछ अवयव का भेद और कुछ अन्य अवयव के सघात से दर्शत विघातक सूक्ष्मपना को छोढ़ता हुआ स्थूलता परिमारण के उपज जाने पर चक्षु इन्द्रिय द्वारा ग्राह्य हो जाता है, सूक्ष्म परिणत स्कन्ध का अन्य स्कन्धों के साथ संघात होजाने से तो प्रांखों द्वारा दीखना ना प्रसिद्ध ही है, किन्तु सूक्ष्म स्कंध के कुछ अवयवों का विदारण होजाना और उसी समय स्थूलता या दृश्यता के सम्पादक अन्य अवयवों का मिश्रण होजाने से उपजी स्थूल पर्याय को आंखों से देख लिया जाता है, सूक्ष्म का भेद होजाने से चक्षु-उपयोगी स्थूलता नहीं उपज सकती है, प्रत्युत सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होजायेगा, अत: सूक्ष्म को चाक्षुष बनाने के लिये इस सूत्र करके कहा गया उपाय प्रशंसनीय है।
भेदा-संघाताद्भदसंघाताभ्यां च चक्षुर्ज्ञानग्राह्याश्यवी कश्चित् स्वपरिमाणादणुपरिमाण कारणपूर्व:, कश्चिन्महापरिमाणकारणपूर्वकः, कश्चित्समानपरिमाणकारणारब्धस्तद्वद्दष्टोपि स्याद्वाधकाभावात् । तदाहुः।
केवल विदारणसे या अकेले संघातमे अथवा भेद और संघात दोनोंसे उपज रहा नेत्र इन्द्रियजन्य ज्ञान द्वारा ग्रहण करने योग्य अवयवी कोई कोई तो अपने ( अवयवी कार्य के ) परिमाण से छोटे परिमाण वाले कारणों को पूर्ववर्ती उपादान कारण मानकर होजाता है, और कोई चक्षु इन्द्रिय-जन्य ज्ञान द्वारा ग्रहण करने योग्य होरहा अवयवी अपने परिमाण से अधिक परिमाण वाले कारणों को पूर्ववर्ती उपादान कारण लेकर उपज जाता है, तथा तीसरी जाति का कोई अवयवी अपने समान परिमाण वाले ही उपादान कारणों से प्रारब्ध होजाता है, यानी आकाश के सौ सौ प्रदेशों का घेर रहे तीन शताणुकों के संघात से उपज रहा त्रिशताणुक अवयवी बेचारा प्राकाश के सौ प्रदेशों ही तिष्ठ जाता है, तीनसौ में भी विराजता है। अर्थात्-भेद से जो अवयवी उपजा है, वह अपने कारणों के परिमाण से न्यून परिमारण को घेरे यह तो ठीक ही है, किन्तु भेद से उपजा अवयवी ( परमाणु द्वघणुक आदि कतिपय छोटे अवयव नहीं ) अपने कारणों के परिमाण से अधिक परिमाण या समान परिमाण वाले स्थान को घेर कर भी ठहर जाता है, यों भेद से उपजे हुये अवयवी में भी अवगाह के तीनों ढंग लागू होजाते हैं। इस प्रकार संघात से उपजा अवयवी अपने कारणों से