Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वातिक
रहे पुद्गलत्व से विशिष्ट हो रही सत्ता ही पुद्गलद्रव्य है ।
क्रम और प्रक्रम से होने वालीं धर्मद्रव्य की निज पर्यायों में व्याप रहे धर्मद्रव्यपन विशेषरण से प्रालीढ हो रहे सत्व को धर्मद्रव्यपना है । तथा तिसी प्रकार यानी अपनी क्रम, अक्रमवर्ती अधर्मद्रव्य सम्बन्धी पर्यायों में व्याप रहे अधर्म द्रव्यपन विशेषरण को पहन रही सत्ता ही अधर्म द्रव्य है । तिन्हीं के सदृश अपनी प्राकाश सम्बन्धी क्रम, अक्रमवर्त्ती पर्यायों में व्याप रहे श्राकाशत्व नामक उपा विधारी सत्व को आकाश द्रव्य माना जाता है । तथैव क्रम, अक्रम, से हने वालीं अपनी काल द्रव्य की पर्यायों में व्याप रहे कालत्व विशेषरण से विशिष्ट होरहा सत्व ही काल द्रव्य है अतः विशेषरण होकर उन द्रव्यों में वर्त्त रहा सत्व ही जीव प्रादि द्रव्यों का तदात्मक लक्षण है प्रत्येक जीव द्रव्य या एक एक पुद्गल द्रव्य में भी उस निज पर्यायोंमें व्याप रहे व्यक्तित्व विशेषण से युक्त हो रहे सत्वका तादात्म्य बन रहा है जो कि द्रव्य का लक्षरण किये जाने योग्य है ।
• नन्वस्तु सद्द्रव्यस्य लक्षणं तत्तु नित्यमेव, तदेवेदमिति प्रत्यभिज्ञानात् तदनित्यत्वं Sघटनात् सर्वदः वाधकरहितत्वादिति कश्चित् प्रतिक्ष समुत्पादव्ययात्मकत्वान्नश्व मे तद्वि च्छेदप्रत्ययस्याभ्रांतस्यान्यथानुपपत्तेरित्यपरः । तं प्रत्याह ।
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यहाँ कोई पण्डित अनुनय करता है कि द्रव्य का लक्षरण जो सामान्यतः सत् कहा गया है । वह बहुत अच्छा है किन्तु वह सत्व नित्य ही है, क्योंकि " यह वही " इस प्रकार सत्व का एकत्व प्रत्यभिज्ञान होता रहता है, यदि उस सत् का अनित्य होना माना जायेगा तो सादृश्य प्रत्यभिज्ञान भले ही होजाय किन्तु " यह वही है " ऐसा एकत्व प्रत्यभिज्ञान वहां अनित्यपक्ष में घटित नहीं होपाता है सभी कालों में सत् के नित्यपन को साध रहा एकत्व प्रत्यभिज्ञान नाम का प्रमाण वाधकों से रहित है । इस प्रकार कोई सांख्यमत के पक्ष का अवलम्ब लेकर कह रहा है । तथा दूसरा पण्डित बौद्ध मत का आश्रय लेकर यों अवधारण कर रहा है कि वह सत् प्रत्येक क्षरण में उत्पाद और व्यय - प्रात्मक होने सेनाशशील ही है पहली पर्याय नष्ट होकर दूसरे क्षरण में अन्य ही पर्याय उपजती रहती है, घूम रहे पहिये के अरा और अर विवर के समान उस उत्पाद और व्ययकी चल रही धारा में पड़े हुये विच्छेदों ( अन्तरों ) का होरहा भ्रान्ति रहित ज्ञान अन्यथा हो नहीं सकता है अर्थात् - उत्पाद, व्यय, यदि नहीं माने जायेंगे तो स्थास, कोष, कुशूल, घट, कपाल, या विजली, दीपकलिका, प्रादि में होरहे मध्यवर्ती विच्छेदों का ज्ञान झूठ पड़ जायेगा सर्वथा नित्य पदार्थ सदा एक ही रहता है उस में अनेक उपज रहे, विनश रहे भावों का अन्तराल नहीं पड़ता है, अतः सत् नश्वर है । इस प्रकार कोई दूसरा पण्डित कह रहा है । अब सूत्रकार उन एकान्त नित्यवादी और एकान्त क्षणिक-वादी पण्डितों के प्रति समाधान कारक सूत्र को कहते हैं ।
उत्पादव्ययश्रव्ययुक्तं सत् ॥ ३० ॥
द्रव्य के उत्तर समयवर्ती परिणाम का उपजना स्वरूप उत्पाद और पूर्व समयवर्ती पर्याय का