Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-पातिक
अब यहाँ किसी का पूर्व पक्ष प्रारम्भ होता है कि यह द्रव्य का लक्षण जो सत किया गया है वह क्या विशेष रूप से सत्पना द्रव्य का लक्षण है ? अथवा क्या सामान्य रूप से सत्पना द्रव्य का लक्षण इस सूत्र में कहा गया है ? बतायो। यदि प्रथम पक्ष अनुसार विशेष रूप से सत्पना द्रव्य का लक्षण माना जायेगा तब तो घट, पट. नारंगी, अमरूद, काला, नीला, खट्टा, मीठा, प्रादि पर्यायों को भी द्रव्यपन का प्रसंग पाजावेगा यह लक्षरण का अतिव्याप्ति नामक दोष हुया, पर्यायें भी विशेष रूप से सत् हैं किन्तु वे पर्याय द्रव्य नहीं मानी गयीं हैं. अन्यथा यानी अभेद पक्ष पर बल दिया जायगा तब तो द्रव्य, गुण, पर्याय, इन तीन अर्थों की व्यवस्था नहीं की जा सकेगी तथा बिशेष रूप से सत् को द्रव्य का लक्षण मानने पर अव्याप्ति दोष भी आता है। क्योंकि भूत, वर्तमान, भविष्य, इन तीनों कालों में अन्वय रूप से अनुयायी होरहे द्रव्य में विशेषतया सत्पना नहीं है, वर्तमान द्रव्य में ही वह विशेष सदपना विद्यमान है त्रिकाल अनुयायी द्रव्य में तो सामान्य रूप से सत्पना ठहर सकता है अतः गौ का लक्षण शुक्ल कह देने से जैसे अव्याप्ति, अतिव्याप्ति, दोनों दोष आते हैं , उसी प्रकार विशेष सत् को द्रव्य का लक्षण करने पर अतिव्याप्ति, अव्याप्ति. ये दोनों दोष आते हैं।
यदि फिर द्वितीय पक्ष अनुसार सामान्य रूप से उस सत् को द्रव्य का लक्षण कहा जायेगा तब तो शुद्ध द्रव्य ही द्रन्य होसकेगा इस कारण फिर वही अध्याप्ति दोष पाया क्योंकि द्वघणुक, व्यणुक नारकी जीव, मनुष्य, आदि अशुद्ध द्रव्यों में उस सामान्य रूप से सत्पन लक्षण का अभाव है। अतः द्रव्य का उक्त लक्षण निर्दोष नहीं है, इस प्रकार वाद कर रहे किसी पण्डित के प्रति प्राचार्य महाराज करके अग्रिम वातिक द्वारा स्पष्ट समाधान कहा जाता है।
सद्रव्यलक्षणं शुद्धमशुद्धं सविशेषणं ।
प्रोक्तं सामान्यतो यस्मात्ततो द्रव्यं यथोदितं ॥१॥ जिस कारण से कि चाहे शुद्ध द्रव्य हो या अशुद्ध द्रव्य हो अथवा अन्य किसी प्रकार जीवत्व पुद्गलत्व, आदि विशेषणों मे सहित द्रव्य होय यह सब सामान्य रूप से सत्पना बहुत अच्छा कहा गया है तिस ही कारण सवज्ञ आम्नाय से चले आ रहे श्र तज्ञान अनुसार द्रव्य का लक्षण सूत्रकार महाराज ने कह दिया है जो कि त्रिकाल, त्रिलोक में प्रवाधित होकर अव्याप्ति, अतिव्याप्ति, दोषो का निवारण करता हुआ यथार्थ है।
____न हे विशेषतः सद्व्यलक्षणं यतोत्रातिव्याप्त्यव्याप्ती स्यातां सामान्यतस्तस्य तन्लपणत्वात् । नचैवं शुद्धद्रव्यमेव सल्लक्षणं स्यादशुद्धद्रव्यमेव सन्लक्षणं स्यादशुद्धद्रव्यस्यापि तल्लक्षणत्वोपपः। ततो नाव्याप्तिलक्षणस्य । यथैव हि देशकालेरविच्छिन्नं सर्वत्र सवेदा सर्वथा वस्तुनि सत्सदिति प्रत्ययाभिधानव्यवहारनिबंधनं सचासामान्यं शुद्धद्रव्यलक्षणमवाधमनुभ्यमानमावालप्रसिद्धं तथा सर्वद्रव्यविशेषेषु द्रव्यं द्रव्यमित्यनुभूतवुद्धयभिधाननिर्वधनद्रव्यो पाधि सदेवद्व्यत्वमशद्रव्यसविशेषणस्य सत्वस्यांशुद्धस्वाद ।