Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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अथवा दस प्रदेशों में समा रहे शताशुक के पंचविशति प्रदेशी चार टुकड़े पुनः पच्चीस पच्चीम प्रदेशों को भी घेर कर सानन्द विराजते हैं. ठिंगनी माता के पुत्र उससे लम्बे चौड़े, शरीर वाले होसकते हैं, कोई वाधा नहीं है, छोटी कण्डे की कस्सी से बीसों गज लम्बा, चौड़ा, धुंआ निकल पड़ता है, रूई की गांठ के टुकड़ों को पीन कर दसों गज में फैला दिया जाता है, छोटी मकड़ी के उदरस्थ कारण से बड़ा जाला बन जाता है, अतः अल्प परिमाण वाले अवयवी के डुकड़े अपने जनक के अधिकृत स्थान से अधिक स्थान पर भी अपने पांव फैला देते हैं, अवकाश के विशेषों का कोई नियम नहीं है. जब कि इस जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरतक्षेत्र के पांचसौ छब्बीस और छ: बटे उन्नोस योजन आकाश में इससे कई गुनी बादर बादर भूमि समा सकती है, तो फिर एक अवयव के स्थल में अनेक अवयवों का ठहर जाना कोई चमत्कारक नहीं है, प्रवगाह देना स्वरूप उपकारकत्व को धार रहे आकाश में छःऊ द्रव्य एक दूसरे को अवकाश देने के लिये सतत सन्नद्ध रहते हैं, मानो वे सम्पूर्ण प्राणियों को निःस्वार्थ अतिथि सत्कार करने के लिये शिक्षा दे रहे हैं, छोटी मुर्गी के अपत्य बड़े मुर्गे के समान ही छोटे अवयवी के विदारण करके महान् परिमाण स्कन्ध उपज जाता है, पदार्थों की शक्तियां विचित्र हैं ।
randuमयिकाभ्यां भेदसंघाताभ्यामुत्पद्यमानोपि स्कंधः कश्चित्स्वकार गरिमाणादधिक परिमाणः कश्चिन्न्यूनपरिमाण इनि सूक्तमुत्पश्यामो दृष्टविरोधाभावात् प्रतीयते हि तादृशः ।
संघात अथवा भेद से उपज गये प्रवयवियों के अवगाह का विचार जैसे कर दिया है, इस ही प्रकार तीसरे कारण माने गये एक ही समय में होने वाले भेद और संघात दोनों से उपज रहा स्कन्ध भी कोई कोई तो अपने कारण के परिमाण से अधिक परिमाण वाला होजाता है, और कोई कोई स्कन्ध अपने कारण से न्यून पारमारण वाला होकर उपज जाता है, भावार्थ-दस प्रदेशों में ठहर रहे एक शतारणुक स्कन्ध में से चार प्रदेशों में स्थित दशाणुक पिण्ड का विदारण होजाने से और दश प्रदेशों में ठहर रहे दूसरे विंशत्यक पिण्ड का सम्मिश्रण होजाने से उपजा एकसौ दश प्रणुत्रों वाला श्रवयवी अपने जनक कारणों के सोलह प्रदेशी या बीस प्रदेशी स्थान से अधिक एक सौ दश प्रदेशों को भी घेर कर ठहर सकता है, अथवा एक सौ दश अणुप्रों का स्कन्ध दश, आठ आदि स्वल्प प्रदेशों में भी अवगाह कर लेता है, तथा प्राने कारणों के परिमाण से समान परिमाण वाले क्ष ेत्र में भी समा सकता है । इस प्रकार सूत्रकार द्वारा बढ़िया कहे जा चुके " भेदसंवातेभ्य उत्पद्यते " इस सिद्धान्त के वैज्ञानिक रहस्य को हम कई ढंगों से प्रसिद्ध होरहा देखते हैं । प्रत्यक्ष प्रमाण से उक्त सिद्धान्त में कोई विरोध नहीं आता है, जैसी वस्तु व्यवस्था प्रतीत होरही है, वैसा ही प्रयोग सूत्रकार द्वारा लिखा गया है, वैसा ही त्रिकाल त्रिलाक में अबाधित होकर प्रतीत होरहा है, प्रतीत पदार्थों में कुतर्कों की गति नहीं है ।
यहां कोई जिज्ञासु मोठा प्राक्ष े उठाता है, कि जब संघात से ही स्कन्धों का आत्म-लाभ.
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