Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम-अध्याय
आदिक गुण बेचारे कहां ठहर रहे जाने जासकते हैं ? द्रव्य के प्रत्यक्ष में जैसे रूप आदिकों का सहित पना वैशेषिकों के यहाँ अावश्यक है। उपी प्रकार रूप आदिकों के प्रत्यक्ष में भी उनके अधिकरण होरहे द्रव्यों का साथ ही अवलोकन होजाना अपेक्षणीय है। यदि कोई यहां यों तर्क करें कि दीपक प्रोट में रखा रहता है उसकी प्रभा दीख जाती है, कुटकी परोक्ष में दूर कुटती रहती है फिर भी उसके रस का प्रत्यक्ष हो जाता है, शीशी के इत्र का प्रत्यक्ष नहीं होजाने पर भी उसकी फैली हुई सुगन्ध सूप ली जाती है, दूरवर्ती अग्नि प्रादि के स्पर्श को छू लिया जाता है।
इस पर जैनों को यह कहना है, कि वस्तुतः गवेषणा की जाय तो दीपक पनी कलिकाशरीर में ही निमग्न है, प्रभा या प्रकाश के उपादान कारण तो धर या चौके में फैल रहे पुद्गल स्क. न्ध हैं, सूर्य या दीपक ता प्रकाश के निमित्त मा। हैं. इसी प्रकार दूर वा नैमित्तिका अनुसार इन्द्रियों के निकटवर्ती पुद्गल स्कन्ध ही कड़वे, सुगंधित, उष्णस्पर्शवाले, परिणत होगये हैं, अतः जब कभी रूप आदिकों का प्रत्यक्ष होगा वह द्रव्य-सहितों का ही होगा यह जैन सिद्धान्त निरव द्य है । उमास्वामी महाराज ने प्रथम अध्याय में ‘मति तयोनिबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु" इस सूत्र द्वारा छः द्रव्यों की असर्व पर्यायों और सम्पर्ण छः ऊ द्रव्यों को मतिज्ञान और थ तज्ञान के गोचर-पने करके व्यवस्था करादी है, कतिपय पर्यायों से सहित होरहे द्रव्य का मतिज्ञान या श्र तज्ञान से प्रतिभास होता है. इसी बात को दूसरी वचन भंगी से यों कह लो कि मतिज्ञान या श्र तज्ञान द्वारा द्रव्यो में वृत्ति होकर जाने जा रहे रूप, रस, आदि कतिपय पर्यायों का परिज्ञान होता है, अतः दर्शन. स्पर्शन, के समान द्रव्य को रासन, नासिक्य, श्रौत्र, मानसिक भी स्वीकार पिया जाय । गुण और गुणो का कथचित् अभेद मानने पर वैशेषिकों को चित्र रूप, चित्र रस, चित्र स्पर्श, चित्र गन्ध, मानने का बाझ नहीं बढ़ाना पड़ेगा और रसनासंयोगसन्निकर्ष, त्वक्संयोगसन्निकष तभी सफल होसकेंगे।
इदमेव हि प्रत्यक्षम्य प्रत्यक्षत्वं यदनात्मवा वेकेन बुद्धौ स्वरूपस्य समर्पणं । इमे पुना रूपादयो द्रव्यरहिता एवामृन्यदानक्रायणः स्वरूपं च नापदर्शयन्ति प्रत्यक्षतां च स्वीकतु - मिच्छन्तीति स्फुटमभिधीयतां ।
चूकि प्रत्यक्षज्ञान का प्रत्यक्षाना यही है, अथवा प्रत्यक्ष प्रमाण के विषय होरहे अर्थ का प्रत्यक्ष होजाना यही है, जो कि प्रपने ( विषय स्वरूप ) से भिन्न होरहे अनन्त पदार्थों का पृथक भाव करके प्रत्यक्षबुद्धि में स्वकीय रूप का भले प्रकार अर्पण करदेना है, द्रव्य से रहित होरहे ये रूप ग्रादिक ही फिर मूल्य नहीं देकर क्रय करने वाले होरहे हैं, बुद्धि में अपने स्वरूप को नहीं दिखलाते हैं, और अपने प्रत्यक्ष होजाने को स्वीकार करना चाहते हैं, इसो बात को प्राप बौद्ध स्पष्ट करते रहियेगा। प्रर्थात्-विक्रय पदार्थ को मूल्य नहीं देकर क्रय करना ( खरीदना ) बड़ा भारी चोरी का दोष है, बौद्ध स्थान स्थान पर यों कह देते हैं, कि पाप जैनों या नैयायिकों के यहां माना स्कन्ध या अवयवी