Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-पातिक
बतायो शब्द-धारायें तो बारह योजनों से भी अधिक दूर तक पहुंचती होंगी किन्तु चक्र वर्ती की भी कर्ण इन्द्रिय का विषय इससे अधिक दूर वर्त रहा शब्द नहीं है, अतः शब्द के सुने जाने की प्रकृष्ट मर्यादा केवल बारह योजन की नियत करदी गयी है शब्द की धारायें तो सैकड़ों योजन तक पहुँच जाती होंगी। आजकल भी रेडियो, वायर लैस, आदि अनेक यंत्रों के सहारे हजारों मीलों के दूरवर्ती शब्द को यहाँ सुन लिया जाता है। प्रकरण में यह कहना है कि नष्ट हो चुके पदार्थों का दैशिक समुदाय नहीं बन सकता है यदि बौद्ध या नैयायिक यों कहैं कि भले ही पूर्व उच्चारित शब्द नष्ट हो चुके हैं फिर भी उनके सद्भाव की कल्पना कर उनका समुदाय गढ़ लिया जाता है जो कि वाच्य अर्थ का प्रतिपादक हो जाता है, यों कहने पर तो हम वैयाकरण कहते हैं कि यदि उन मरे हुये शब्दों के कल्पित किये गये समुदाय को वाक्यार्थ की प्रतिपत्ति का निमितकारणपना माना जायगा तो अति प्रसंग होजायगा अर्थात्-महीनों पहिले सुने जा चुके विनष्ट शब्दों द्वारा भी अर्थप्रतिपत्ति होने लग जायगी ऐसी दशा में अनेक शब्द बोधों के होजाने का प्रसंग आ जाने पर व्यर्थ में उन्मत्तता छा जायगी जो कि किसी को अभीष्ट नहीं है. अतः प्रत्येक शब्द या समुदिन शब्द तो वाक्यार्थ की प्रतिपत्ति को नहीं करा सकते हैं ।
___ निन्यवाद्वर्णानां समुदाय: संभवतीति चेत् न, अ भव्यक्तानां तेषां क्रमवत्तित्वात्तदभिव्यंजकवायुनामनित्यत्वात क्रमभावित्वात् क्रमशस्तदभिव्यक्तिमिद्धः। तेषामनभिव्यक्तानामर्थप्रतिपत्तिहेतुत्वे तदभिव्यंजकव्यापारवैयादतिप्रसंगाच्च तत एकाभिव्यक्ता भिव्यक्तशब्दसमूहादर्थप्रतिपत्तिरिति प्रतिव्यूढं ।
वैयाकरण ही कह रहे हैं कि यदि कोई मीमांसक यों कहे कि शब्द क्षणिक या कालान्तरस्थायी नहीं है किन्तु सभी प्रकार आदि वर्ण निस्य हैं, अतः नित्य वर्गों का समुदाय होजाना अतुपण सम्भव जाता है. यों कहने पर तो हम वैयाकरण कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि शब्द को नित्य मानने वालों के यहाँ भी उन शब्दों की अभिव्यंजकों द्वारा होरही अभिव्यक्तियों की प्रवृति क्रम से मानी गयी है । अतः अभिव्यक्त होरहे उन नित्य भी वर्गों की क्रम से वृत्ति मानी जायगी क्योंकि उन शब्दों की अभिव्यक्ति करनेवाली वायुयं अनित्य हैं इस कारण उन वायुओं का क्रम करके उपजना होने से उन शब्दों की भी क्रम से अभिव्यक्ति सिद्ध हुयी, अतः अभिव्यक्त वर्णों का समुदाय नहीं बन सका। यदि नहीं भी अभिव्यक्त होरहे उन वर्गों को अर्थ की प्रतिपत्ति कराने में हेतु मान लिया जायगा तो उन वर्गों के अभिव्यंजक होरहे वायु, कण्ठ, तालु, गंशविभाग, दो हथेलियों का संयोग, तार, तांत, आदि के व्यापारों का व्यर्थपना हुआ जाता है।
एक बात यह भी है कि शब्द को नित्य मानने वाले वादी के यहाँ अनेक शब्द अनभिव्यक्त पड़े हुये इष्ट किये गये हैं, वे शब्द भी अर्थ की प्रतिपत्ति को करा देोंगे, यह अति प्रसंग दोष पाणायगा । इस शब्दों को अभिव्यक्ति और अनभिव्यक्ति के पुण्य से पाये हुये अवसर को हाथ से