Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वार्तिक
अवयवों में पुनः उस संयोग की अन्य एक देश करके वृत्ति मानी जायेगी तो यों ही उत्तरोत्तर देशों की कल्पना करते करते अनवस्था दोष प्रजायेगा. हां अपने प्रत्येक प्रश्रय में उस संयोग की वहां सम्पूर्ण अपने शरीर से वृत्ति मानी जायेगी तो संयोगों के अनेकपन का प्रसंग आजावेगा कम से कम दो, तीन, आदि जितने भी संयोगी हैं। उतने ही संयोग बन बैठेंगे और तिस प्रकार होते सन्ते एक एक संयोग में एक एक संयोग ज्ञान के होजाने का प्रसंग प्रावेगा, साथ ही एक ही वार में उन संयोगों से संयुक्त होरहे पदार्थों को विषय करने वाले अनेक संयुक्त प्रत्ययों के होजाने का भी प्रसंग आजावेगा सम्बन्ध-वादी पण्डित इन अनिष्ट प्रसंगों का निराकरण नहीं कर सकते हैं ।
एक बात यह भी है कि एक द्रव्य का दूसरी द्रव्य के साथ आत्मभूत संयोग होजाना मान लेने पर द्रव्य का अणु शरीर स्थूल हुआ जाता है । द्रव्य की असाधारणता पर साधरणता का अधिकार होजायगा, क्षणिक पदार्थ को स्थिर बनने का अवसर दिया जाता है, सम्बन्ध को मान रहे जैनों के यहां अगुरुलघु गुरण स्वरूपनिष्ठ हो रहे पदार्थों को उपकार्य उपकारकभाव की कीच में डालकर कैवल्य से वंचित किया जाता है, अतः श्रवयवी के समान संयोग भी सिद्ध नहीं हो सका ।
नैकदेशेन वर्तते नापि सर्वात्मना किं तर्हि वर्तत एवेति वायुक्त प्रकारांतरेण क्वचि त्कस्यचिद्वर्तनस्यादृष्टेः । स्वाश्रयाभिन्नरूपस्तत्सयोगिनां चैव प्रत्यासन्नतयौत्पत्तौ न ततोर्थान्तरं किंचिदित्येकांत वादिनामुपालंभो न पुनः स्याद्वादिनां तेषां स्वाश्रयात्कथं । चद्भिन्नस्य संयोगस्याभिमतत्वात् । संयोगिव्यतिरेकेणानुपलब्धेः सयोगस्यातद्भिन्नत्वसिद्धेः प्राक् पश्चाच्च तदाश्रयद्रव्यसद्रावेपि सयोगस्याभावात्ततो भेदस्यापि प्रतीतिविरोधाभावात् ।
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संयोग सम्बन्ध का प्रत्याख्यान कर रहे बौद्ध ही कहे जारहे हैं कि यदि कोई संसर्गवादी यों व्यर्थ प्राग्रह करे कि संयोग अपने आश्रय में न तो एक देशसे वर्तता है और सर्व आत्मा करके भी नहीं वर्तता है जैसा कि तुम बौद्धोंने दो विकल्प उठा कर खण्डन किया है तो फिर क्या कैसे वर्तता है । इसका उत्तर राजाज्ञा के समान यहो है कि संयुक्त में संसर्ग वर्तता ही है भलें ही इन दो के अतिरिक्त तीसरा ढंग होय । बौद्ध कहते हैं कि इस प्रकार संसर्ग - वादियों का कहना युक्ति रहित है क्योंकि एक देश करके या सर्व देश करके इन दो प्रकारों से अतिरिक्त किसी तीसरे प्रकार करके कहीं भी किसी भी पदार्थ का वर्तमान नहीं देखा गया है ।
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बात यह है कि पूर्व में दण्ड अपने स्थान पर क्षण क्षरण में उपज रहा था और पुरुष स्वकीय स्थल पर अपने उत्पाद विनाशों में लवलीन होरहा था पुरुष करके हाथ में दण्ड थाम लेने पर दोनों की प्रत्यासन्न देशों में क्षणिक धारा अनुसार निज निज परिणति होने लगी है और कोई नई बात नहीं हुई है, इधर उधर अस्त व्यस्त बैठे हुये विद्यार्थियों को श्रेणी अनुसार निकट बैठा देने पर उनमें कोई नई परिणत नहीं होजाती है, हुण्डी द्वारा रुपयों के यहां वहां दूर, निकट, चले जाने या चले प्राने से कोई चांदी के रुपये सोने के नहीं हो जाते हैं, तभी तो वैराग्य भावना को भावने वाले तत्वज्ञानी