Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम - प्रध्याय
पुरुष इन माता, पिता, बन्धुजन, पुत्र, कलत्र, मित्र, धन, शरीर आदि के सम्बन्धों को झूठा विचारते हैं "हम न किसी के कोई न हमारा, झूठा है जग का व्यौहारा" "जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थं पन्थे पहिय जगाणं जह संजोगो हवेइ खरण मित्तं, बंधुजणारणं च तहा संजोगो अद्भुवो होदि" ये वचन जैनों के प्रमाण माने गये हैं ।.
कहना यह है कि उन संयोग वाले संयुक्त पदार्थों की निकटवर्ती होकर उत्पत्ति होजाने की दशामें संयोग कल्पित कर लिया जाता है वह संवृति रूप संयोग अपने प्राश्रयों से अभिन्न है उन सयोगियों से कोई सर्वथा भिन्न पदार्थ नहीं है जैसा कि वैशेषिकों या नैयायिकों ने मान रक्खा है । अब श्राचार्य कहते हैं कि इस उक्त प्रकार एकान्त वादियों का उलाहना उन्हीं एकान्तवादी बौद्धों के ऊपर पडता है किन्तु फिर स्याद्वादियों पर कोई उपालम्भ नहीं आता है क्योंकि उन स्याद्वादियों के यहां अपने आश्रय हो रहे संयुक्त पदार्थों से कथंचित् भिन्न होरहा संयोग पदार्थ अभीष्ट किया गया है संयोगियों से अतिरिक्त होकर के संयोग की उपलब्धि नहीं होती है, ग्रतः सयोग का उनसे अभिन्नपता सिद्ध होजाता है । हाँ संयोग होने से पहिले और पीछे अवस्थाओं में उस संयोग के प्राश्रय होने वाले या होचुके पृथक् पृथक् द्रव्यों का सद्भाव होने पर भी संयोग का प्रभाव है। अतः उन संयोगके भेद की भी प्रतीति होजाने में कोई विरोध नहीं आता है यों संयुक्तोंसे संयोग कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न है, यह जैन सिद्धान्त है।
नन्वसंयुक्त द्रव्यलक्षण भ्यामुपसर्पण प्रत्ययवशात्संयुक्तयोस्तयोरुत्पतेर्नापरः संयोगो - वभासत इति चेन्न, तयोर संयुक्त परिणामन्यागेन संयुक्त परिणामस्य प्रतीतेः । संयुक्तयोः पुनर्वि भागपरिणामवत् । यावेव सयुक्तौ तत्भयोपलब्धौ तावेव च सम्प्रति विभक्तौ दृश्येते इति प्रत्यभिज्ञानात् संयोगविभागाश्रयद्रव्ययोरव स्थितत्व सिद्धेः । न च प्रत्यभिज्ञानमप्रमाणं तस्य प्रत्यक्षवत्स्वविषये प्रमाणत्वेन पूर्वं समर्थनात् ।
संसर्ग को नहीं मानने वाले बौद्ध अनुनय करते हैं कि प्रथम नहीं संयुक्त होरहे द्रव्य स्वरूपों से सरपट गमन कराने वाले कारणों के वश द्वारा उन दोनों संयुक्त होचुके द्रव्यों की नवीन उत्पत्ति होजाती है, इस व्यवहित द्रव्यों का निकट होकर उपज जाने से निराला कोई संयोग पदार्थ नहीं प्रतिभासता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि पहिले के असंयुक्त परिणाम का त्याग करके पुनः उन द्रव्यों के हो रहे संयुक्त परिणामकी प्रत्यक्षप्रमाण द्वारा प्रतीति हो रही है, पृथक् घरे हुये भोजन, वस्त्र, भूषण, इष्टजन, की अपेक्षा भोजन, वस्त्र आदि के संयुक्त होजाने पर देवदत्त की श्रवस्था अन्य ही होजाती है जैसे कि पहिले संयुक्त होरहे पदार्थों का पुनः विभाग होजाने पर न्यारी परिगति होरही देखी जाती है, वस्त्र या पुत्र, कलत्र, आदि की वियोग अवस्था में उस संयुक्त प्रवस्था के परिणामों से न्यारी ही जाति के परिणामन होते हैं, यह बात किसी सहृदय व्यक्ति से छिपी हुई नहीं है, जब संयोग या विभाग न्यारी न्यारी प्रविभाग प्रतिच्छेदों वाली पर्यायोंको उपजाते हैं तो संयोग