Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक- वार्तिक
का संग्रह करने के लिये साधारणतया अणु और स्कन्ध ये दो भेद होसकते हैं, किन्तु प्रण और स्क
के प्रवान्तर यानी मध्यवर्ती उनकी जाति के भेद प्रभेदों को धारने वाले प्रणु जाति के आधार भूत श्रौर स्कन्ध जाति के आधारभूत पुद्गलों को अनन्तानन्त संख्या है। ऐसी अवस्था में कोई प्राक्षेप करता है, कि तब तो द्वन्द्व समास कर " प्रणुस्कंधाः" इतना ही सूत्र कहा जाम्रो, यों कह देने में लाघव गुण है, अर्द्ध मात्रालाघवेन पुत्रोत्सवं मन्यन्ते वैयाकरणाः”
ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि पृथक् पृथक् जस् विभक्ति वाले पदों का भेद करना तो उक्त दोनों सूत्रों में इस सूत्र का क्रम से सम्बन्ध करने के लिये है, "स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः " इस तेईसवें सूत्र का प्रणवः के साथ सम्बन्ध किया जाय और " शब्दबंध सौक्ष्म्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योतवन्तश्च" इस चौवीसमे सूत्र का स्कंधारच के साथ यों अन्वय किया जाय । श्रर्थात्-स्पर्श, रस, गन्ध- वर्ण वाले श्रगु पुद्गल हैं, और शब्द, बन्ध, सूक्ष्मता, स्थूलता संस्थान, भेद, अन्धकार, छाया, घाम, उद्योत, पर्यायों वाले स्कन्धपुद्गल हैं. इस सूत्र में पड़े हुये चकार से शब्द आदि पर्यायों वाले स्कन्धों को परमाणुओं के समान स्पर्श, रस, गन्ध, वर्णों से सहितपना भी उक्त होजाता है, ये सभी पुद्गलों के सहभावो पर्याय हैं। यदि द्वन्द्र समास वृत्ति कर दी जाती तो फिर समासित पद में समुदाय ही प्रर्थवान् होता "समुदायो ह्यर्थवानेकदेशोऽनर्थकः " समुदिन प्रथ को प्रधानता होजाने से अकेले अकेले श्रवयव का अर्थ अन्वित नहीं होपाता, ऐसी दशा मे तेईसमे और चौवीसमे सूत्रों का यहां भेद करके दोनों मोर सम्बन्ध नहीं किया जा सकता है, अतः सूत्रकार ने लाघव को तुच्छ समझ कर प्रभूत प्रमेय की प्रतिपत्ति कराने के लिये समास नहीं कर प्रव्यक्त सूत्र कहा है ।
किं पुनरनेन सूत्रेण कृतमित्याह ।
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यहां कोई जिज्ञासु पूछता है, कि श्री उमास्वामी महाराजने इस सूत्र करके फिर क्या प्रमेय अर्थ की सिद्धि की है ? बताओ, ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर श्री विद्यानन्द आचार्य इस उत्तर वार्त्तिक
को कहते हैं ।
अणवः पुद्गलाः केचित्स्कंधाश्चेति निवेदनात् ।
अण्वेकांतः प्रतिक्षिप्तः स्कंधैकांतश्च तत्त्वतः ॥ १॥
कोई तो पुद्गल अनेक अणुस्वरूप हैं, और कितने ही अनन्तानन्त पुद्गल स्कन्ध स्वरूप हैं, इस प्रकार सूत्रकार द्वारा निवेदन कर देने से बौद्धों का वस्तुतः केवल परमाणुत्रों के ही एकान्त वाद का प्रतिक्षप ( खण्डन ) कर दिया गया है, और तात्विक रूप से माने गये केवल स्कन्धों के एकान्त का भी निराकरण कर दिया है। भावार्थ-जगत् में न तो केवल परमाणु ही हैं, न केवल स्कंध ही हैं, किन्तु पांच द्रव्यों के साथ छठा पुद्गल द्रव्य भी है, जो कि परमाणु और स्कन्ध इन दोनों भेदों में विभक्त होरहा व्यक्ति रूप से प्रनन्तानन्त संख्या वाला है। सांख्य जन प्रात्मा और प्रकृति इन दो