Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम - अध्याय
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पड़ा है। तथा लोकाकाश जितना ही लम्बा है, उतना ही चौड़ा हैं और उतना ही मोटा है । तभी तो आगे चल कर श्री वीरनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती ने "व्योमामूर्तं स्थितं नित्यं चतुरस्रः समं धनं । भावाबगाहेतुश्चानन्तानन्त प्रदेशक" कहा है। परमाणु भी जितना लम्बा, चोड़ा, चौकोर होगा उतना ही मोटा या ऊंचा भी अवश्य होगा चतुरस्र कह देने मात्र से सम घन चतुरस्र अर्थ तो प्रर्थापत्यानिकल आता है, लोकाकाश के एक एक प्रदेश पर अनन्तानन्त परमाणुयें बन्धी हुयीं या नहीं बंधी हुयी भी ठहर रही हैं, अतः सूक्ष्म परमाणुत्रों का अन्य परमाणुओं के साथ सर्वांग संयोग होकर अणु मात्र प्रचय होजाने के भी हम जैन विरोधी नहीं हैं, बड़ी अवगाहना वाले स्कन्धों की उत्पत्ति परमाणु के चौकोर पैल माने विना हो नहीं सकती है, अतः शक्ति अपेक्षा परमाणु के छह प्रोर मानने पड़ते हैं । यों व्यक्ति रूप से बिचार करने पर परमाणु स्वयं अपना प्रादि है, आप ही अपना मध्य है, और स्वयं ही अपना अन्तिम भाग है ।
तथा वही जैन ग्रन्थों में इस प्रकार कहा गया है, कि विशेषतया परमाणु को यों समझ लिया जाय कि वह स्वयं अपना आदि है, और पूरा शरीर वाला स्वयं अपना मध्य है, तथा स्वयं पूरा का पूरा अपना अन्त है, वहिरंग इन्द्रियों से ग्रहण करने योग्य नहीं होरहा परमाणु प्रतीन्द्रिय है, आज तक परमाणु का छोटा विभाग नहीं हुआ, न है, और भविष्य में भी परमाणु का खण्ड नहीं होगा, अत: परमाणु अविभाग है, यद्यपि प्रकृत्रिम प्रतिमायें, सूर्य, चन्द्रविमान, आदि प्रखण्ड स्कन्ध पदार्थों का भी विभाग नहीं होता है, फिर भी अनादि निधन अकृत्रिम पौलिक स्कन्धों में से प्रति समय अनन्तानन्त परमाणुयें निकलते और घुसते रहते हैं अतः प्रकृत्रिम प्रतिमा आदि के प्रांश विद्यमान हैं, किन्तु परमाणु के तो अंश भी नहीं हैं, अतः परमाणु निरंश हैं, यहां तक अणुओं का व्याख्यान समाप्त कर दिया गया है ।
स्थौल्यात् ग्रहणनिक्षेपणादिव्यापारास्कंदनात स्कंधा, उभयत्र जात्यपेक्षा बहुवचनं । अणुजात्याधाराणां स्कंधजात्याधाराणामवतरतजातिभेदानामनंतत्वात् । अणुस्कंधा इत्यस्तुलघुत्वादिति चेन्नोमय्त्रसर्वार्थत्वाद्भेदकरणस्य । स्पर्शरसंगंधवर्णवं द्रोणवः, शब्दबंध सौक्ष्म्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योतवंतश्च स्कंधा इति । वृत्तौ पुनः समुदायस्यार्थव स्वादवयवार्थाभावात् भेदेनाभिसंवन्धः कतुमशक्यः ।
उपस्कार करते हुये निरुक्ति द्वारा अणु शब्दका जैसे अर्थ निकाला है, उसी प्रकार स्कम्ब शब्द की व्युत्पत्ति करते हुये योगरूढ़ि अर्थ निकालते हैं, कि स्थूलता होने के कारण ग्रहण किया जाना उठा कर धर देना, फेंक देना, चाबलेना, हक देना, आदि व्यापारों का आस्कंदन ( युद्ध ) यांनी उक्त व्यापारों में भिड़ जाने से स्कंध कहे जाते हैं। यहां अणु स्कन्ध, दोनों में जाति की अपेक्षा बहुवचन कहा गया है अर्थात् - "जात | वेकवचनं" गेंहूँ मद्दा है, घोड़ा शीघ्र दौड़ा करता है, आदि जाति-वाचक शब्दों में एक वचन शोभता है, किन्तु अणुओं और स्कन्धों की जातियां भी अनेक हैं, हां सभी पुद्गलों
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