Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
३२०
श्लोक-वातिक
वैसे ही सदा निकलते प्रविशते रहते हैं, अतः बड़े अवयवियों के टूटने पर विखर गये परमाणूओं की बिवक्षा नहीं की गयी है, हाँ पाठ अणूत्रों के पिण्ड अष्टाणूक,या सात अणू के बने हुये सप्ताणक मादि को विभक्त किये जाने पर परमाण स्वरूप टुकडा होजाना झ टति लक्ष्य होजाता है, अन्न की ढेरी में से हाथ डाल कर सेरों अनाज के पिण्ड उछाले जांय तो बहुत से अन्न सम्मिलित होकर भी गिर पड़ते हैं, हाँ पाठ या सात ही धान्य बीजों को उछाला जाय तो कई बीज अकेले भी प्रमाण गोचर होजाते हैं. इस हादिक भाव के अनुसार ग्रन्थकार ने घट, कपाल, कपालिका, ग्रादि स्कन्धों का विदारण होना साध कर अष्टाण क. सप्तरणक आदि स्कन्ध का भेदने योग्य -पना साधा है, जो कि परमाणों के सद्भाव का परिज्ञापक है।
___अब यहां कोई जिज्ञासु शिष्य मानो पूछता है. कि यह अणस्वरूप और स्कन्ध स्वरूप जो पुद्गलों का परिणाम वत रहा है, वह क्या अनादि है ? अथवा क्या आदिमान् है ? यदि उत्पत्ति स्वरूप हाने से अणों और स्कन्धों सादि माना जायगा तो बताओ किस निमित्त कारण से ये उपजते हैं ? ऐसी जिज्ञासा प्रवतने पर सूत्रकार महाराज इन पुद्गलों की उत्पत्ति में निमित्त होरहे कारणों की सूचना करने के लिये इस अगले सूत्र को कह रहे हैं ।
भेदसंघातेभ्य उत्पद्यन्ते ॥२६॥ चीरना, फाड़ना, टूटना, फूटना, पीसना, दलना, फूटना आदि छिन्न भिन्न करना स्वरूप भेद से और मिलजाना चिपटजाना, बजाना रुलजाना, घुलजाना, पिण्डो भूत होजाना, मादि न्यारे न्यारे पदार्थों की कथाचत् एकत्वापत्ति स्वरूप संघात से तथा कतिपय अन्य प्रशों का भेद और साथ ही दूसरे कतिपय अंशों का संघात इन तीन कारणों से पुद्गल ( स्कन्ध , उत्पन्न होते हैं।
- संहतानां द्वितयनिमित्तवशाद्विदारणं भेदः, विविक्तानामेकीभावः संघातः द्वित्वा. द्विवचनप्रसंग इति चेन्न, बहुवचनस्याथविशेषज्ञापनार्थत्वात्तो भेदेन सघात इ-यस्याप्याव- . रोधः।
__ परस्पर मिलकर संघात को प्राप्त होचुके स्कन्धों का पुनः अन्तरंग, वहिरंग, इनदोनों निमित्त कारणों के वश से विदीर्ण होजाना भेद है, और पृथग्भूत अनेक पदार्थों का कथंचित् एक होजाना संघात है । यदि यहां कोई यों पूछे कि भेद और सघात तो दो ही हैं, अतः द्वित्व की विवक्षा अनुसार "भेदसंवाताभ्यां" यों केवल द्विवचन होना चाहिये सूत्रकार ने भ्यस् विभक्ति वाले बहुवचन का प्रयोग क्यों किया है ? प्राचार्य कहते हैं, कि यह तो नहीं कहना क्योंकि यहां विशेष अर्थ को ज्ञप्तिकराने के लिये बहुवचन कहा गया है, तिस कारण भेद के साथ युगपत् होरहा सघात इस तीसरे कारण को भी पकड़ लेनेसे कोई विरोध नहीं पाता है.अर्थात् जैन सिद्धान्तमें तोनोंको स्कन्धका कारण इष्ट किया है, पत्थर में से कुछ टुकडे को छिन्न, भिन्न कर प्रतिमा उकेर ली जाती है, चून में पानी डाल कर पिण्ड