Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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चम-न्याय
सभी ज्ञान सविकल्पक हैं । तथा वौद्धोंके यहां निर्विकल्प प्रत्यक्ष द्वारा देखे जा चुके पदार्थ में ही पश्चात कल्पनात्रों को उठा रहे विकल्प ज्ञान होते माने गये हैं, जब कि कहीं पर संयोग प्रत्यक्ष द्वारा देख लिया जाता तब तो उस संयोगवाले में " संयुक्त है" यह विकल्प करना युक्त होसकता था जैसे कि नील स्वलक्षण को निर्विकल्पक प्रत्यक्ष से देखे जा चुकने र पश्चात् " नीलमिदं नील उत्पलं" ऐसे विकल्प ज्ञान उठ बैठते हैं, यदि विना देखे ही नील का विकल्प ज्ञान उपज जायगा तो उस नील ज्ञान के असत्यपन का प्रसंग पाजावेगा किन्तु वह नील ज्ञान असत्य तो नहीं है क्योंकि इस नील ज्ञान का कोई बाधक प्रमाण नहीं है।
अर्थात्-बौद्धों ने तदध्यवसाय करके पूर्व ज्ञान का प्रामाण्य व्यवस्थापित किया है। नील स्वलक्षणको जानने वाले निर्विकल्पक प्रत्यक्षको प्रामाण्य तभी व्यवस्थित होता है । जब कि उस प्रत्यक्ष के पीछे उसी विषय का अध्यवसाय करने वाला विकल्पज्ञान उपज जाय, एक चन्द्रमामें दो चन्द्रमाको जान रहे मिथ्या प्रत्यक्ष के पश्चात् हये विकल्प ज्ञान करके पहिले प्रत्यक्ष का सत्यपना नहीं व्यवस्थित होपाता है । अतः प्रवाधित यानी सत्य संयुक्त प्रत्यय से संयोग पदार्थ वस्तुभूत सध जाता है।
ननु च न संयुक्तप्रत्ययः सत्यम्तद्विषयस्य वृत्तिविकन्पानवस्थादिदोषक्षितत्वादवयविप्रत्ययादित्यंतदम्ति तद्वाधकं । तथाहि-सयोगः स्वाश्रये वतमानो यद्यकदेशेन वर्तते तदा सावयवः स्यात, स्वावयवेषु च स्वतो भिन्नेषु तस्यैकदेशांतरेण वृत्तौ परापरदेशकल्पनेऽनवस्था सर्वात्मना प्रत्येकं तत्र तस्य वृत्तौ संयोगानेक स्वप्रसंगस्तथासत्यकै कस्मिन् संयोगे संयोगप्रत्य यप्रसंगः । सकृदनेकसंयुक्तप्रत्ययप्रसंगश्च ।
"परतंत्र्यं हि सम्बन्ध: सिद्ध का परतंत्रता । तस्मात्सर्वस्य भावस्य सम्बन्धो नास्ति तत्वतः" इस अभिप्राय अनुसार सम्बन्ध को परमार्थ नहीं मान रहे बौद्ध अपने पक्ष का अवधारण करते हैं। कि संयोग सम्बन्ध से विशिष्ट होरहे पदार्थ का ज्ञान ( पक्ष ) सत्य नहीं है, ( साध्य ) उस ज्ञान के विषयभूत होरहे संयोग को बृत्ति विकल्य, अनास्था. द्रव्यस्थूलता, साधारणत्व, उपकार्य उपकारक भावधारा प्रादि दोषों करके दूषित हो जाने से ( हेतु ) अवयवो के ज्ञान समान ( अन्वयदृष्टान्त )।
यों यह अनुमान उस संयुक्तप्रत्यय का वाधक है अर्थात्-अवयवों में अवयवी की वनि एक देश से मानने पर वह प्रथम से ही सावयव होरहा माना जायेगा अपने उन अदयवों में भी पूनः एक देश करके वृत्ति मानने पर परापर अवयव देशों को कल्पना करते करते अनवस्था होजायगो । एक एक अवयव में सम्पूर्ण रूप से अवयवी की वृत्ति मानने पर बहुत से अवयवो हुये जाते हैं। इसी प्रकार संयोग में भी उक्त दोष आ जाते हैं। इस बात को यों स्फुटरूप से समझ लोजियेगा कि अपने आश्रय संयुक्त में वर्त रहा संयोग यदि एक देश करके वर्तरहा है। तब तो संयोग सावयव हुआ क्योंकि जो अवयव सहित है, उसी के एक देश या अनेक देश होसकते हैं। और अपने से भिन्न होरहे उन स्वकीय
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