Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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ફૂં૦૪
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जिससे कि बंध पर्याय वाले पुद्गल द्रव्य ही होसकें ऐसी शिष्य की आकांक्षा प्रवर्तने पर श्री विद्यानन्द स्वामी इस अगली वार्तिक हो कहते हैं ।
बन्धो विशिष्टसंयोगो व्योमात्मादिष्वसंभवी । पुद्गलस्कंधपर्यायः सक्तुतोयादिबन्धवत् ॥
आकाश, श्रात्मा, कालायें, आदि द्रव्यों में नहीं सम्भव रहा ऐसा जो विशिष्ट संयोग है । जो कि अनेक पुद्गलों में कथंचित् एकत्व बुद्धि का जनक ससग है, वह वंघ तो पुद्गल स्कन्ध की पर्याय है, जैसे कि पिसे हुये सतुप्रा, पानी या दूध बूरा आदि का बन्ध होरहा पुगगल की पर्याय है । द्रव्ययोर प्रतिपूर्विका प्राप्तिः संयोगः स चापरावितसंयुक्त प्रत्यायात्प्रसिद्धः, संयोगमंतरेण तस्यानुपपत्तेः । प्रत्यक्ष नः क्वचित्सयुक्तप्रत्ययोऽसिद्धस्तस्य तत्पृष्ठमा विविकल्परूपादिति चेत् न, अगृहीतश्संकेतस्यापि प्रतिपत्तुः शब्दयोजनामन्तरेण स्वार्थ व्यवसायात्मनि प्रत्यक्षे मंयुक्तप्रत्यय प्रसिद्धेर्निर्विकल्पक प्रत्यक्षस्य सर्वथा निराकृतत्वात् । तथादृष्टे क्वचित्संयोगे सयुक्त विकल्पो युक्तो नीलप्रत्ययवत् तस्यासत्यत्वप्रसगात् । न चासासत्या बाधकाभावात् ।
परस्पर नहीं मिल रहे दो द्रव्या की अप्राप्ति-पूर्वक प्राप्ति होजाने को संयोग कहते हैं । शरीर के साथ वस्त्र सयुक्त हैं, दाल में घृत सयुक्त है, आदिक संयुक्त द्रव्यों को जानने वालीं निर्वाध प्रतीनियों से वह संयोग सभी लौकिक या शास्त्राय जनों में प्रसिद्ध हारहा है, क्योंकि सयो । के बिना उस संयुक्त इत्याकारक ज्ञान की उपपत्ति नहीं हो सकती है। यहां सयाग क्या किसी भी संसर्ग को वास्तविक नहीं मानने वाले बौद्धों का आक्ष ेप है, कि कहीं भा प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा सयुक्त ऐसे ज्ञान होने की सिद्धि नहीं होरही है, अतः संयो पदार्थ प्रसिद्ध है, हां वस्तभूत स्वलक्षण अर्थ को ग्रहण कर रहे उस निर्विकल्पक प्रत्क्ष ज्ञान के पाछे होने वाले वस्तु भूतार्थग्राही विकल्पज्ञान स्वरूप वह संयुक्त प्रत्यय है, एतवता संयोग वास्तविक पदार्थ नहीं बना । ग्रन्थकार कहते हैं, कि यह तो नहीं कहना क्योंकि जिस पुरुष ने संकेत नहीं भी ग्रहण किया है, उस प्रतिपत्ता पुरुष को भी शब्द की योजना के बिना होरहे स्व और अर्थ के निर्णय प्रात्मक प्रत्यक्ष में संयुक्त प्रतीति होना प्रसिद्ध होरहा है, बौद्धों के यहां माने गये निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का सभी प्रकारों से पूर्व प्रकरणों में निराकरण किया जा चुका है।
प्रर्थात् - प्रत्यक्ष के पीछे हुये निर्विषय या कल्पित विषय-वाले माने गये विकल्पज्ञान द्वारा यदि संयोग की प्रतीति मानी जाती तो संकेत ग्रहण करना और संकेत गृहीत हुये शब्दों का सुनना श्रावश्यक था, संकेत-गृहीता पुरुष को ही शब्दों के सुने जाने पर शाब्दवोध प्रात्मक विकल्पज्ञान हुआ करता है । किन्तु पुरुष में दण्ड का संयोग स्पर्शन प्रत्यक्ष से और अन्य इन्द्रियों से भी संयोग प्रतीत: हो रहे हैं। यहां संकेत ग्रहण या शब्द की योजना करना नहीं है । ज्ञेय अर्थो को विकल्पना कर रहे