Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
पंचम-अध्याय
तो नहीं कहना क्योंकि सर्वथा तत्वान्तर होरहे चेतन अचेतन द्रव्यों का वास्तविक एकत्त्र परिणाम नहीं होसकता है, हां उपचार से उक्त ग्रन्थ में उनका एकत्व परिणाम होरहा कह दिया है, इस ही कारण से तो आगे चल कर वे चेतन. अचेतन दोनों अपने न्यारे न्यारे लक्षणों से अत्यन्त भिन्न हैं, यों द्रव्य स्वरूप से उनके भेद का कथन किया गया है। . ... अर्थात्-बंधं पडि एयत्तं, लक्खरणदो भवदि तस्स णाणत्तं" जीव और पुद्गल की बन्धी हुई अवस्था में बन्ध की अपेक्षा एकत्व परिणति है, किन्तु उस अवस्था में भी जीव अपने उपयोग लक्षण से और पुद्गल अपने रूप, रसादि लक्षणों से न्यारी न्यारी सत्ता को लिये बैठे हैं, तभी तो मोक्ष होने पर अपनी न्यारी न्यारी सत्ता अनुसार दोनों द्रव्य स्वतंत्र होजाते हैं । अत: सिद्ध है, कि पूदगल पुद्गलों का एकत्व परिणाम मुख्य है, और जीवों के साथ पुद्गलों का होरहा एकत्व परिणाम उपचरित है। दाल और चावलों की जैसी खिचड़ी बन जाती है, दाल के साथ तांवे के पैसों को मिला देने पर वैसी खिचड़ी नहीं बनतो है. हा संसर्गजन्य थोड़ा पीतल या तांबे का प्रभाव दाल में अवश्य प्राजाता है, पीतल यां कांसे के पात्र में वेसन और खटाई के व्यंजन बिगड़ जाते हैं, सुवर्ण से अतिरिक्त अन्य धातुओं के पात्र में सिंहिनी का दूध बिगड़ ( फट ) जाता है, तिस कारण सिद्ध है, कि द्रव्यों की एकत्व परिणतिका हेतु होरहा बन्ध तो केवल पुद्गलोंका ही परिणाम है,यह विश्वासकर लेना चाहिये क्योंकि इस सिद्धान्तका वाधक कोई प्रमाण नहीं है,तथा वह बन्ध पुद्गल स्कन्धों का ही है, जीव और पुद्गल के बन्ध को आठमे अध्याय में और परमाणुओं के बन्ध को इसी अध्याय में आगे चलकर "स्निग्ध रूक्षत्वाद्वधः" प्रादि सूत्रो कर न्यारा कह दिया जायगा । यहां प्रकरण में पुद्गल स्कन्धों के धर्म होरहे बन्ध का प्रतिपादन कर दिया गया है, वृत्तिमान पदार्थ, पर्याय, स्वभाव, गुण ये सब धर्म कहे जा सकते हैं।
तथैवावांतरं सोम्यं परमाणुष्वसंभवि।
स्थौल्यादिवत्प्रपत्तव्यमन्यथानुपपत्तितः ॥७॥ तिस ही प्रकार यानी शब्द या बन्ध के समान ही मध्यवर्ती अवान्तर सूक्ष्मता को भी समझ लेना चाहिये । वह अवान्तर सूक्ष्मपना परमाणुषों में नहीं सम्भवता है, परमाणुषोंमें तो अन्तिम सूक्ष्मपना सुघटित है। यहां पुद्गल स्कन्धों के होरहे परिणामों का निरूपण-अवसर है, अतः स्कन्धों के प्रापेक्षिक अवान्तर सूक्ष्मपने को स्थूलता, संस्थान, आदि के समान निर्णीत कर लेना चाहिये । साध्य के विना हेतु का नहीं होसकना स्वरूप अन्यथानुपपत्ति से उपजीवित होरहे सद्धेतु द्वारा नियत साध्य की सिद्धि होजाती है।
यह वात्तिक परार्थानुमान स्वरूप है, स्थौल्यादिवत् के स्थान पर स्थौल्यादि च ऐसा समझ कर सूत्रोक्त सौक्षम्य और स्थौल्य, आदि पाठों पर्यायों का व्याख्यान हो लिया जान लिया जाय। ग्रन्थकार की ऐसी शैली है, कि अवान्तर सूक्ष्मता को पुद्गल स्कन्धों का पर्याय साधने पर तो स्थूलता