Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम-अन्याय
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नहीं खोदेना । विचार कर कोई यों कह बैठता है कि कुछ अभिव्यक्त हो रहे उच्चारित शब्द और नहीं प्रकट हुये पागे, पीछे, के शब्दों का समूह होजाने से वाच्य अर्थ की प्रतिपत्ति होजायगी। उत्तर पक्ष पर बैठे हुये वैयाकरण कहते हैं कि तिस ही कारण से यानी अभिव्यंजकों के व्यापार का व्यर्थ पना प्राजाने से और अतिप्रसंग होजाने से उक्त सिद्धान्त का खण्डन कर दिया है अर्थात् जैसे मरे हुये और जीवित पुरुषों का कोई सम्मेलन नहीं बन सकता है उसी प्रकार अभिव्यक्त और अनभिव्यक्त शब्दों का समूह बन जाना अलीक है।
___ पूर्वपूर्ववर्णज्ञानाहितसंस्कारापेक्षादंन्यवर्णश्रवणाद्वाक्यार्थप्रति तिरिति चेत् न,तत्संस्काराणामनित्यत्वेन्त्यवर्णश्रवणकाले सत्वविरोध दसतोपेक्षानुपपत्तः ।
यदि नैयायिक या वैशेषिक यों कहैं कि भले ही पहिले पहिले वर्ण नष्ट हो जाते हैं फिर भी वे पहिले पहिले वर्ण अगले अगले वर्गों में संस्कार को प्रविष्ट करते जाते हैं अर्थात् जैसे कि ऋण देने वाला वणिक अपने अधमर्ण होरहे किसान से ब्याज के ऊपर ब्याज लगाता हुआ प्रति तीसरे वर्ष सरकारी स्टाम्पों को बदलवाता रहता है अथवा रसायन को बनाने बाला वैद्य उसी औषधि में अनेक भावनायें देता रहता है, वनस्पति शास्त्र का वेत्ता फूल या फलों को उतरोत्तर वृक्ष या बेलों की सन्तान अनुसार बहुत बड़ा कर लेता है, विशेष बलधारी जीव एक गाय के दूध को दूसरी गाय को पिलाकर और दूसरी गाय के दूध को तोसरी गाय को पिलाकर यों चौथी, पांचवीं प्रादि सौ गायों तक प्रक्रिया करके सौवीं गाय के दुग्ध का मावा बना कर पौष्टिक मोदक बनाते सुने जाते हैं एक निकृष्ट हिंसक हकीम ने किसी कामातुर यवन को यों पुष्टि-कर प्रयोग बताया था कि कितने ही सांढ़ों यानी सरपट चलने वाले विशेष विषधर जन्तुषों को प्रथम चालीस मुर्गे खांय पुनः चालीसवें मुर्गे को वे उनतालीस मुर्गे खाजांय यों उनतालीसवें को शेष अड़तीस और अड़तीसमे को शेष सेंतीस आदि क्रम से भक्षण करते हये जब एक मुर्गा शेष रहे उसका मांस भक्षण करने से बडा भारी काम विकार हो जाता है।
___ इस प्रयोग को धिक्कार है, वक्ता ओर श्रोता दोनों ने तीब्र पाप से अनन्त कामवासना के महापापों को उपजा कर अनन्त नरक निगोद को बढ़ाया है (धिक, मोह ) इसी प्रकार पहिले शब्द का ज्ञान दूसरे शब्द के ज्ञान में अपने संस्कार को धर देता है और तीसरे शब्द के ज्ञान में पहिले शब्द से संस्कृत द्वितीय शब्द के ज्ञान का संस्कार घर दिया जाता है यों पहिले, दूसरे, तीसरे, आदि के संस्कारों को क्रम क्रम से ले रहे चौथे, पांचमे, प्रादि शब्द ज्ञानों के संस्कारों से युक्त होरहा अन्तिम शब्द का श्रावणप्रत्यक्ष झटिति वाक्य अर्थ की प्रतिपत्ति करा देता है वैयाकरण कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि शब्द या ज्ञान के समान उनके संस्कार भी तो अनित्य हैं, ऐसी दशा में अन्तिम वर्ण के सुनने के अवसरपर उन संस्कारों के विद्यमान रहनेका विरोध है जो वस्तु विद्यमान ही नहीं है उसकी " वाक्यार्थ की प्रतिपत्ति करना" आदि किसी भी कार्य में अपेक्षा करते रहना उचित नहीं पड़ता है।