Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम प्रध्याय
વર
किया जायगा | ऐसा होने पर तो मंत्र आदि द्वारा अर्थ को प्रतििित्तका कारण होरहा गंध आदि से भिन्न वह स्फोट भी स्वीकार कर लेना चाहिये जो कि जैन सिद्धान्त अनुसार नासिका, चक्षु, आदि इन्द्रियों मे जन्य मतिज्ञान को पूर्ववर्ती मान कर हुये श्रुतज्ञान स्वरूप है । अन्यथा यानी आक्षेपों या समाधान के समान होने पर भी यदि पक्षपात-वश केवल शब्दस्फोट को ही मान कर गंव स्फोट प्रादि को नहीं स्वीकार किया जायगा तो तुम्हारे शब्द स्फोट की व्यवस्था नहीं बन सकने का प्रसंग प्राजावेगा जो कि तुम वैयाकरणों को इष्ट नहीं है। यदि सभी स्फोटों को मानते हुये वैयाकरण इष्टापत्ति कर लें तो इतना ध्यान रहे कि वे शब्दस्फोट, गन्धस्फोट, स्पर्शग्फोट, रस स्फोट रूप स्फट, अथवा हस्त आदि स्फोट भी एक ही स्वभाव को नहीं धार रहे हैं किन्तु अनेक स्वभावों से समवेत होरहे उन श्रुतज्ञान स्वरूप स्फोटों का सदा प्रतिभास होरहा है ।
बात यह है कि वैयाकरणों के यहां माने गये नित्य, निरंश, शब्दस्फोट के साथ हमें कोई इष्टापत्ति नहीं है क्योंकि ऐसे स्फोट में कोई युक्ति नहीं है, तथा स्याद्धाद प्रक्रिया अनुसार शब्दस्फोट, गन्धस्फोट, आदि को श्रुतज्ञान स्वरूप मान लेने पर हमें कोई द्वेष भी नहीं है । संयुक्त विषय में द्वेष काहे का ? श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुई अन्तः प्रकाश स्वरूप जिस लब्धि से शब्द द्वारा अथवा गन्ध, अवयव क्रिया श्रादि द्वारा अन्य सम्बन्धी अर्थोको स्फुटरूप से प्रतिपत्ति कर ली जाती है उस लब्धि को स्फोट कह देने में जैन सिद्धान्त का कोई प्रतिक्रमण नहीं होजाता है असम्भवद्वाधकत्व, और युक्तियों से भरपूर होरहा सिद्धान्त ही जिनोक्त निर्णय है ।
एतेनानुसंहृतिर्वाक्यमित्यपि चिंतितं पदानामनुसंहतेषु द्विरूपतया प्रतीतेरनुसंधीयमानानामेकपद कारायाः सर्वथैकस्वभावत्वाप्रतीतेः ।
इस प्रख्यात शब्द, आद्यपद, अन्त्यपद, वर्णक्रम, वर्णसंघात, संघातवर्तिनी जाति, बुद्धिश्रात्मक स्फोट, इनके उक्त निरूपण करके अनुसंहृति को वाक्य मानने वाले के मन्तब्य का भी चिन्तन कर दिया गया समझ लेना चाहिये प्रथवा बुद्धि को वाक्यपन का निराकरण करने वाले इस प्रकरण करके अनुसंहृति के वाक्यपन का प्रत्याख्यान कर दिया गया भी यों विचार लो कि वर्णों का या पदों का अनुसार यानो परामर्श करना तो बुद्धि-स्वरूप हो करके प्रतीत होरहा है। पदों को सुनकर सतगृहोता पुरुष चित्त में स्फुरायमान होरहे परामश को जैन सिद्धान्त में भाव वाक्य प्रभोष्ट किया गया है अनुसंधान यानी अन्वित रूपसे विचार करने योग्य पदों या वर्णों की एक पद या एक आकार वाली प्रतीति हो रही है जो कि एक अनेक प्रात्मक है, सर्वथा एक स्वभाव वाली ही अनुसंहृति की प्रतीति नहीं होपाती है ।
अत्रापरे प्राहुःन पदेभ्योऽर्थान्तरमेकस्वभावमेकानेकस्वभावं वा बाक्यमाख्यातशब्द
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