Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम व्याय
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तो यह श्रोता की अनधिकार चेष्टा है । व्यर्थ अधिक बोल कर दूसरे का माथा पचाना जैसे दोष है उसी प्रकार नहीं कही गयी यहां वहां की व्यर्थ या प्रसद्भूत बातों को समझ कर अपना मस्तिष्क नष्ट करना उससे भी बढ़ा हुआ दोष है। जैन सिद्धान्त में द्रव्यहिंसा से भावहिंसा का तीब्र पाप माना गया है । तृतीय पक्ष अनुसार दोनों दोष लागू होजाते हैं अतः कारक - सामान्य का तोनों विकल्पों में क्रिया से अन्वितपना नहीं ज्ञात किया जा सकता है, ऐसी दशा में प्राभाकरोंके अन्विताभिधानवादकी युष्टि नहीं होसकी, पदों का परस्पर में अन्वय होचुकना कष्ट साध्य विषय होगया ।
क्रियायाश्च साधनसामान्येन साधनविशेषेण तदुभयेन वान्वितायाः प्रतिपादनमाख्याते न प्रत्याख्यातं ततो न प्रतिपाद्यबुद्वान्वितानां पदार्थानामभिधानं प्रतीतिविरोधात् । प्रतिपादक बुद्धौ तु तेषामन्वितत्वप्रतिपत्तावपि नान्विताभिधान सिद्धिस्तत्र तेषां रेखाभिहितानानन्वयात् ।
तथा इसी प्रकार क्रिया - वाचक " अभ्याज,, इस प्रख्यात पद करके भी साधन - सामान्य या साधन - विशेष अथवा उन दोनों ही करके अन्वित होरही मानी गई क्रिया का प्रतिपादन किया जाना तीनों विकल्पों में निराकृत कर दिया गया है । श्रर्थात् प्रभ्याज इस क्रिया-पद को गां या देवदत्त इन कर्म-कारक या कर्तृ कारक पदों का प्राकांक्षी होने पर प्रथम पक्ष अनुसार साधन-सामान्य करके fron होरही क्रिया का प्रख्यात शब्द द्वारा प्रतिपादन करने में विशिष्ट वाक्यार्थ को प्रतिपत्ति होने का विरोध दोष उपस्थित होजाता है । द्वितीय पक्ष अनुसार साधन-विशेष करके अन्वित हो रही क्रिया का प्रख्यात शब्द द्वारा प्रतिपादन मानने पर वाक्यार्थके निश्चय का असम्भव होजाना दोष तदवस्थ है तथा साधनसामान्य और साधन-विशेष इन दोनों से श्रन्वित होरही क्रिया का प्रख्यात शब्द करके प्रतिपादन करना इस तीसरे पक्ष उभय दोष का प्रसंग आता है, यों प्रख्यात पद करके तीनों विकल्पों में क्रिया के प्रतिपादन होते रहने का प्रत्याख्यान कर दिया जा चुका है ।
तिस कारण सिद्ध हुआ कि प्रतिपादन करने योग्य श्रोता की बुद्धि में ग्रन्वित होरहे पदार्थों का अभिधान नहीं होसकता है जैसा कि प्राभाकरोंने मान रक्खा है क्योंकि इसमें प्रतीतियों स विरोध आता है, हाँ प्रतिपादक वक्ता की बुद्धि में तो उन अन्वित होरहे पदार्थों के अन्वित होने की प्रतिपत्ति होनेपर भी कोई प्राभाकरों के अन्विताभिधान को सिद्धि नहीं होपाती है, कारण कि प्रतिपादक की उस बुद्धि में दूसरे से कहे जा चुके उन पदार्थों का अन्वय नहीं होरहा है । प्रतिपादकके लिये किसीने शब्द बोले ही नहीं हैं दूसरी बात यह है कि प्रतिपादक का बुद्धि में पदों का अन्वय होते भी वह श्रोता के काम का नहीं है। एक बात यह भी है कि पद के अर्थ में उत्पन्न हुआ ज्ञान अर्थ का निर्णय करा देवेगा तो चक्षु, रसना आदि इन्द्रियों से उत्पन्न हुप्रा रूप, रस, भला गन्ध का मध्यवसायी क्यों नहीं होजाय ? |
यदि वाक्य के आदि का ज्ञान