Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पलोक-बातिक
ग ये शब्दों का कारण है अपने वाप कोही बेटा बनाना अनुचित है. हां वक्ता के शब्द श्रोता के ज्ञान में निमित्त कारण पड़ जाते हैं, अतः विशेष होरहे विशेषणों से अन्वित हुये विशेष्य को विशेष्य वाचक पद नहीं कह सकता है, अन्विताभिधानवादी अपने पक्ष को लौट! लेवें।
तृतीयपक्षे तु उभयदोषानुषंगः ।
तीसरे पक्ष में तो दोनों दोषों के होजाने का प्रसंग पाता है 'प्रत्येक यो भवेद् दोष उभय: म कथं नहि" अर्थात् - सामान्य और विशेष दोनों होरहे विशेषरण से अन्वित विशेष्य को यदि विशेष्य पद का वाच्य माना जायेगा तो विशिष्ट वाक्यार्थ की प्रतिपत्ति होनेका विरोध और निश्चयासंभव ये दोनों दोष पाकर खड़े हो जाते हैं, अतः अन्विताभिधान-वादी के यहाँ गां इस विशेष्य पद के शुक्ल इस विशे. षण की विशेष अवस् या सामान्य अवस्था अनुसार अन्वितपन का प्रयोग निणय नहीं होसका है।
___एतेन क्रिय सामान्येन क्रियाविशेषेण तदुभयेन वा न्वितस्य साधनसामान्यस्याभिधानं निरस्तं ।
विशेष्यके ऊपर तीन ढंगों से उठाये गये विशेषण के अन्त्रित होने के इस खण्डन ग्रन्थ करके अन्विताभिधान-वादी प्राभाकारों के इस निरूपण का भो निराकरण कर दिया गया समझ लो कि जैसे गां इस पद को शुक्लां इस विशेषरण की आकांक्षा होने पर अन्वित करने के लिये तीन विकल्प उठा कर अन्वित होजानेका खण्डन कर दिया गया है उसी प्रकार गां इस साधन-सामान्य का अभ्याज क्रिया के साथ अन्वय करने के लिये आकांक्षी होने में तीन विकल्प उठाये जाते हैं, गां इस कर्मकारक के वाचक पद करके क्या क्रिया सामान्य से अन्वित हो रहे गाय कर्म का अभिधान किया जाता है ? या गां पद करके क्रिया-विशेषसे अन्वित होरहे साधन-सामान्य का निरूपण किया जाता है ? अथवा क्या क्रिया के आकांक्षी माने गये गां इस कर्म-कारक द्वारा क्रिया-सामान्य गाय का निरूपण किया जाता है ? बतायो । प्रथम पक्ष अनुसार क्रिया सामान्य से अन्वय मानने पर विशेष क्रिया से सहित होरहे विशिष्ट वाक्यार्थ की प्रतिपत्ति नहीं होसकेगी क्योंकि क्रिया-वाचक पद करके सामान्य क्रिया की ही प्रतिपत्ति हुई थी ऐसी दशा में विशेष ढंगसे घेरलेना रूप क्रिया की प्रतिपत्ति कथमपि नहीं हो सकती है। साम.न्य रूप वस्त्र कह देने से ऊन का प्रखरखा या लाल पगड़ी नहीं समझ ली जाती है सामान्य गमन कह देने मात्र से नाचना, उछलना, दौड़ना, नहीं उक्त हो जाता है “ भ्रमणं रेचनं स्यन्दनोलज्ज्वलनमेव च , तिर्यग्गमन मप्यत्र गमनादेव लभ्यते।" यह प्रमाण देना व्यर्थ है। द्वितीय पक्ष ग्रहण करने पर वही विशेषण विशेष्य से विशेष्य का अन्वय मानने पर पाया हा निश्चय के असम्भव होजाने का दोष यहां भी लग बैठता है जब कि क्रिया-वाचक शब्द ने शब्द-शक्ति का अतिक्रमण नहीं करते हुये क्रिया-विशेषको कहा ही नहीं है। दो मल्लों की केवल लड़ाई का निरूपण करने पर यदि श्रोता उनके दाव, पेच, या अन्य शारीरिक विशेष क्रियानों को विना कहे यों ही समझ बैठे