Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम-अध्याय
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उसका प्रयोग किया गया है अत: उस पदान्तर के अर्थ में गमकपन का व्यापार है यों अनेक पदों से अन्वित होरहा हो शब्दार्थ हुआ अर्थात्-हमारे मत अनुसार जो प्रत्येक के दो व्यापार माने गये हैं वही बात सिद्ध होगई । पद अपने निज अर्थ को अभिधावृत्ति से कहता है और दूसरे पदों के गम्यमान अर्थ को प्रर्थापत्त्या समझाता रहता है यहां तक प्राभाकर मीमांसक अपने मत को कहकर समाप्त कर चुके हैं।
तदप्यमत, पादप इति पदस्य प्रयोगे शाखादिमदर्थस्यैव प्रतिपत्तिस्तदर्थाच्च प्रतिपन्नातिष्ठत्यादिपदवाच्यस्य स्थानांद्यर्थस्य सामर्थ्यतः प्रतीतस्तत्र पदस्य साक्षाव्यापाराभावाद्ग किन्वायोगात् तदर्थस्यैव तद्गमक-वात् । परंपरया तस्य तत्र व्यापारे लिंगवचनस्य लिंगिप्रतिपत्ती व्यापारोस्तु। तथा सति शब्दमेवानुमानज्ञानं भवेत् ।
अब प्राचार्य कहते हैं, कि वह मीमांसकों का मन्तव्य भी प्रशसनीय नहीं है क्योंकि "पादाभ्यां पिबतीति पादपः" पादप इस पद का प्रयोग करने पर शाखा, डाली, पत्ता आदि के धारी अर्थ की ही प्रतिपत्ति होजाती है, पुनः जान लिये गये उस शाखादि वाले अर्थ से तिष्ठति, कम्पते, आदि पदों से कहे गये "ठहर रहा है" या "कम्प रहा है" इत्यादिक अर्थों की तो कहे बिना यों ही सामर्थ्य से प्रतीति कर ली जाती है, उस ठहरने आदि अर्थों में बृक्ष इस पद का कोई साक्षात् रूप से व्यापार नहीं है अतः पादप पद उस ठहर रहा आदि अर्थ का गमक नहीं होसकता है, वस्तुतः वह पादप शब्द तो उसके वाच्यार्थ होरहे वृक्ष अर्थ का ही गमक होसकता है अथवा उन स्थान या कम्प स्वरूप अर्थों के लिये तिष्ठति कम्पते, आदि पद ही उपयोगी है, शाब्दबोध की प्रक्रिया में अनुमान प्रमाण के विक्रिया का प्रवेश करना उसी प्रकार शोभा नहीं देता है जैसे कि खीर में दाल का चमचा वा देना नहीं रुचता है, अतः पदों के दो व्यापार मानना अयुक्त है ।
___ यदि मीमांसक उस स्थानादि अर्थ में इस वृक्ष पद का परम्परा करके व्यापार मानेंगे यानी वृक्ष शब्दसे शाखा आदि वाले अर्थकी प्रतिपत्ति होजाती है.पुनः वृक्षकी प्रतिपत्ति से कम्प,ठहरना आदि अर्थों की प्रतिपत्ति कर ली जाती है, यों कहने पर हम जैन कहते हैं, कि तब तो हेतु के प्रतिपादक वचन का भी लिंग से ज्ञय होरहे साध्य की प्रतिपत्ति कराने में व्यापार होजाग्रो और तसा होते सन्ते सभी परार्थानुमान स्वरूप ज्ञान बेचारे शाब्दबोध बन बैठेंगे जो कि इष्ट नहीं हैं । वैशेषिक भी "शब्दोपमानयो व पृथक्प्रामाण्यमिष्यते, अनुमानगतार्थत्वादिति वैशेषिकं मतं'. इस प्रकार शाब्द बोध का अनुमान में अन्तर्भाव भले ही कर लें किन्तु शाब्दबोध में अनुमान का गभं होना कथमपि नहीं मानते हैं, पांच या छः प्रमाणों को मानने वाले मीमांसक तो शाब्द प्रमाण में अनुमान का अन्तर्भाव कभी नहीं करेंगे, अतः भिन्न भिन्न वाचक पदों की ही न्यारे २ स्थान आदि अर्थों को कहने में शक्ति मानी जाय । प्रामाकरों के यहां अन्वित पदों का अभिधान करना वाक्य माना गया किसी को ठीक बंचा नहीं।