Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वार्तिक
से प्रतीत किये जा रहे हैं तो किसी ही अर्थ को श्रभिधावृत्ति द्वारा कहा जा रहा मानना और दूसरों को यों ही गम्यमान मान बैठना यह विना कारण विभाग कर देना उचित नहीं है क्योंकि दोनों अर्थों में कोई अन्तर नहीं दीखता है । जो जिस पद से अर्थ प्रतीत होता है वह निर्विशेष होकर उसका अर्थ मान लिया जाय, ऐसी दशा में मीमांसकों के ऊपर वही कई बार पदार्थों की प्रतिपत्ति होजाने का दोष तदवस्थ रहा ।
स्यान्मतं, पदप्रयोगः प्रेक्षावता पदार्थप्रतिपत्यर्थो वाक्यार्थ प्रतिच्यर्थो वा क्रियेत् १ न तावन्पदार्थ प्रतिर्थस्तस्य प्रवृत्तिहेतुत्वाभावात् । कः पिकः १ कोकिल इत्यादि केवल पदप्रयागस्यःपि वाक्यत्रतीतेति कः कि उच्यते १ कोकिल उच्यते इति प्रतीतेः । यदि तु वाक्यार्थप्रतिवर्थः यदा प्रयोगानंतरं पदार्थ प्रतिपत्तिः साक्षाद्भवतीति तत्र पदस्याभिधानव्यापारः पदांतराथस्यापि प्रतिग्त्तयं तस्थ प्रयोगात् तत्र गमकत्वव्यपार इति । यदि कोई प्रभाकर अनुयायी मीमांसक वादा अपने मन्तव्य को स्थिर रखने के लिये यों विचार चलावे कि हिताहित विचार का रखने वाले प्रयोक्ता पुरुष करके किया गया पदों का प्रयोग क्या केवल पदों के अर्थ की प्रपिपत्ति कराने के लिये किया जाता है ? अथवा क्या पदों का प्रयोग भला वाक्य के अर्थ की प्रतिपत्ति कराने के लिये किया गया है ? बताओ प्रथम पक्ष अनुसार पदार्थ की प्रतिपत्ति के लिय तो पद का प्रयोग करना सार्थक नहीं है क्योंकि प्रयोजनार्थी पुरुष के प्रति केवल देवदत्त पद या अकेले श्रभ्याज पद का प्रयं ज्ञाताजाता प्रवृति का हेतु नहीं होपाता है, केवल गो पदको सुनकर उसके अर्थका जानने वाले पुरुषकी कहीं भी प्रवृत्ति या निवृत्ति होना नहीं देखा जाता है। for क्या है ? कोकिल है, "पचति, पाक करोति" इत्यादि स्थलोपर केवल पदका प्रयोग किया गया है। वह भी वाक्यार्थ की प्रतिपत्ति कराने का निमित्त है तभा भले ही कुछ प्रवृत्ति करलो जब कि पिक क्या है ? यो प्रश्न कहा जाता है तो पिक का अर्थ कोयल कह दिया जाय इस प्रकार प्रतं ति हो रही दीखती है ।
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भावार्थ - "वनप्रियः परभृतः कोकिलः पिक इत्यपि " इस अमरकोष की कारिका को सुनने पर अथवा कोकिलः पिक - पदवाच्यः या, इह सहकारतरौ मधुरं पिको रौति इत्यादि स्थलों पर कोष, प्राप्तवाक्य, प्रसिद्ध पद सन्निधान, इनसे पिक पदका कोयल अर्थ में शक्ति ग्रह होजाता है जो कि 'शक्ति ग्रहं व्याकरणोपमानकोषाप्तवाक्याद् व्यवहारतश्च वाक्यस्य शेषाद्विवृतेर्वदन्ति सान्निध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धा: ।' ऐसा ग्रन्थों में कहा गया है अतः अकेले पद की अवस्था में भी उपस्कारों द्वारा वाक्यार्थ बना लिया जाता है, केवल पद तो किसी काम का नहीं है । अब द्वितीय पक्ष अनुसार पद का प्रयोग करना यदि वाक्यार्थ की प्रतिपत्ति कराने के लिये माना जाय तब पद के प्रयोग के अनन्तर ही पद के अर्थ में तो साक्षात् यानी अव्यवहित रूप से प्रतिपत्ति होजाती है इस कारण पदके उस अर्थ में तो पद का अभिधान व्यापार है और अपत्या जानने योग्य पदाथोस्तर को भो प्रतिपत्ति कराने के लिये