Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
पंचम अध्याय
२८५
मीमांसकों का मत हो, तब तो हम जैन कह देंगे कि जितने भी पद हैं उतने ही प्रधान रूपसे उनके वाक्यार्थ समझ लेने चाहिये जो कि अन्य पदों द्वारा कथन करने योग्य अर्थों से अन्वित हो रहे हैं उसी प्रकार पदों की संख्या अनुसार वाक्यार्थों की प्रतिपत्तियां भी उतनी ही संख्या में क्यों नहीं हो जावेंगी ? | अर्थात्- गौण रूप से गां, अभ्याज आदि पदों के अर्थों करके अन्वित हो रहे देवदत्त अर्थ को प्रधान रूप से देवदत्त यह कह देवेगा प्रौर देवदत्त, अभ्याज, आदि पद के अर्थों से अन्वित होरहे गाय अर्थ को प्रधान रूप से गां पद कह देगा अथवा अभ्याज पद भी स्वकीय अर्थ को प्रधान रूप से कह रहा सन्ता गौरण रूप से देवदत्त गां ग्रादि पदों के अर्थों से प्रन्वित होरहे वाक्यार्थ को अभिव्यक्त कर देगा. शुक्लां पद या दण्डेन पद में भी यही प्रक्रिया दर्शा दी जावेगी । एक लखपति सेठ के चारों बेटे, तीनों बेटियां, छेऊ नाती, अपने अपने को लक्षाधिपति मान बैठते हैं। सच पूछो तो यह उनका अभिमान करना एक प्रकार से कदाग्रह है। हाँ इतना बड़ा तो यह असत्य भी नहीं है जैसा कि कोई दम्भ करने वाला बनियां भोले ऋणी से कई वार रुपया प्राप्त करने की कुचेष्टा करता है । बात यह है कि सन्मुख रखा हुआ एक घड़ा चाहे एक प्रांख को मीच कर दूसरी अकेली आंख से देखा जाय अथवा दोनों भी प्रांखों से देखा जाय, एक ही घड़ा दीखेगा. दो नहीं । इसी प्रकार साकांक्ष अनेक पदों का एक ही वाक्यार्थ और वाक्यार्थ की प्रतिपत्ति भी एक ही होनी चाहिये ।
न त्योच्चारात्तदर्थम्याशेषपूर्वपदाभिधेयैरन्वितस्य प्रतिपत्तिर्वाक्यार्थाविवोधो भवति, न पुनः प्रथम दोच्चारात्तदर्थस्योत्तरपदाभिधेयैन्तिस्य प्रतित्तिर्द्वितीयादि ग्दोच्चारणाच्च शेषग्दाभिधेयैरन्वितस्य तदर्थस्य प्रतिपत्तिरित्यत्र किंचित्कारणमुपलभामहे । ऐतेनावृश्या पदार्थप्रतिपत्तिप्रसंग उक्तः द्वितीयादिपदेन स्वार्थस्य च पूर्वोत्तरपदार्थानामपि प्रतिपादनादन्यथा तैस्तस्यान्विसत्वायोगात् ।
किन्तु फिर प्रथम पद
• आचार्य महाराज वैयाकरणों की ओर से दिये गये प्रभाकर मीमांसक के ऊपर प्रक्ष ेपका ही समर्थन कर रहे हैं कि अन्तिम पद के उच्चारण से तो शेष सम्पूर्ण पूर्वपदों के अभिधेय अर्थों करके अन्वित हो रहे अन्तिम पदार्थ की प्रतिपत्ति होते हुये वाक्यार्थ का ज्ञान होजावे के उच्चारण करके उसके उत्तर-वत्र्त्ती प्रशेष पदों के अभिधेय होरहे अर्थों से अन्वित होरहे उस प्रथम पदार्थ की प्रतिपत्ति होते हुये वाक्यार्थ की प्रतिपत्ति नहीं होय । तथा द्वितीय पद, तृतीय पद, आदि ..के उच्चारण से उनसे शेष सम्पूर्ण पदों के अभिधेय अर्थी करके अन्वित होरहे उस प्रथमपदार्थ की प्रतिपत्ति होते हुये वाक्यार्थ की प्रतिपत्ति नहीं होय । तथा द्वितीय पद तृतीय पद आदि के उच्चारण से उनसे शेष सम्पूर्ण पदों के अभिधेय अर्थों करके अन्वित होरहे उस द्वितीय, तृतीय, आदि पद के अर्थ की प्रतिपत्ति होते हुये वाक्यार्थ ज्ञान नहीं होय. इस प्रयुक्त पक्षपात पूर्वक प्राग्रह करने में किसी कारण को हम नहीं देख रहे हैं ।