Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम-मयाय
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वर्णे में प्रानुपूर्वी-अनुसार नियत होरहे स्वकीय विशेष आकारों करके तो वे क्रम अनेक ही हैं। इस प्रकार स्याद्वादियों के यहां एक-प्रात्मक और अनेक-प्रात्मक होरहा क्रम भी वाक्य होजाय तो कोई
जैन सिद्धात से विरोध नहीं पाता है "वालादपि हितं ग्राह्य,, शत्रोरपि गुणा वाच्या, दोषा वाच्या गुरोरपि,. परीक्षा-प्रधानियों को उक्त दोनों नीतियां पालनी पड़ती हैं, हाँ वर्षों से सर्वथा भिन्न या एक स्वभाव वाला ही मान लिये गये क्रम का तो हम स्याद्वादी भी निराकरण कर देते हैं "सारं ततो ग्राह्यमपास्य फल्गु हंसर्यथाक्षी मिवाम्बुमध्यात्" इस नीति अनुसार वाक्य के लक्षण माने गये कम को सम्हालते हुये हमें वाक्यों से अभिन्न और एकानेकात्मक होरहे क्रम को वाक्य कह देना उचित पान पड़ता है।
___ वर्णसंघातो वाक्यार्थप्रतिपत्तिहेतुर्वाक्यमित्यन्ये, तेषामपि न वर्णेभ्यो भिन्नः सपातोनंशः प्रनीतिमार्गावतारी, संघातत्व विरोधाद् वर्णान्तरवत । नापि ततोऽनन्तरमेव संघातः प्रतिवर्ण-संघातप्रसंगात् । न चैको वर्णः संघातो भवेत् । कथचिदन्योनन्यश्च वर्णेभ्यः संघात इति चेत्, कथमेकानेकस्वभावो न स्यात् ? कथंचिदनेकवर्णादभिन्नत्वादनेकस्तत्स्वात्मवत् । संघातत्वपरिणामादेशात्ततो भिन्नत्वादेकः स्यादिति प्रतीतिसिद्धः ।
अब कोई अन्य पण्डित वाक्य का लक्षण यों कहते हैं कि वर्णों का संघात ही वाक्य है जो कि वाक्य द्वारा प्रतिपाद्य अर्थ की प्रतिपत्ति का ज्ञापक कारण है। प्राचार्य कहते हैं कि उनके यहां भी वर्गों से सर्वथा भिन्न होरहा और अशों से रहित माना गया ऐसा कोई संघात तो प्रतोतियों के निश्चित मार्गपर नहीं उतरता है क्योंकि संघातपने का विरोध होजायगा जैसे कि अन्य वर्गों का समूदाय न्यारा पड़ा हुआ उन वर्णोंका संघात नहीं है । भावार्थ-जैसे अन्य वर्गों का संघात कर दिया गया इन प्रकत वर्गों का सम्मेलन नहीं कहा जा सकता है उसी प्रकार इन प्रकृत वर्णों से भिन्न पडा हा संघात भला इन वर्गों का कैसे भी नहीं होसकता है, चावलों के समुदाय को गेहूँ का ढेर कोई नहीं कहता है भेड़ों का झुण्ड भी मनुष्यों का मेला नहीं कहा जासकता है, उसी प्रकार देवदत्त इस पद में एकत्रित होरहे वर्णो का समुदाय बेचारा महावीरदास इस पद स्वरूप सघात नहीं हो सकता है। यों उन वर्णों से भिन्न पड़ा हुआ सबात भी उन्हीं वर्णों का अविष्वग्भाव नहीं कहा जायेगा। तथा उन वर्णों से संघात अभिन्न हो होय ऐसा भी एकान्त करना ठीक नहीं है क्योंकि यों तो प्रत्येक वर्ण अनुसार संघात होजाने का प्रसंग पाजावेगा किन्तु एक वरण ता संघात हो नहीं सकता है।
अर्थात-चार वर्षों से सर्वथा अभिन्न यदि संघात माना जायगा तो चार सघात अनायास ही बन बैठंगे कोरे एक को संघात कहना विरुद्ध है, सर्वथा भेद और सर्वथा अभेद पक्षों में पाये जये दोषों को टालते हुये प्राप'यदि' वर्गों से कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न होरहा संघात मानो तब तो जैन मत का अनुसरण करते हुये आपके यहां वह संघात-स्वरूप वाक्य बेचारा एक अनेक स्वभावों को धारने वाला किस प्रकार नहीं होजावेगा ? देखिये अनेक वर्णों के साथ कथंचित सभेत