Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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अध्याय
२७७
भावार्थ-नर्तक या नर्तकी गायन के अनुसार शारीरिक भावों को करते हैं, कोई कोई तो दक्ष नृत्यकार मुख से एक अक्षर भी नहीं बोलता हुआ उस गीत के सभी भाबों को नृत्य द्वारा शरीर की चेष्टानों से ही समझा देता है । नत्य व.ला में हंस, पक्षम. ग्रादि सांकेतिक क्रियाओं को हस्त स्फोट सिखाया जाता है, कदाचित् हंस जैसे अपनी रोमावली को फुरफुरा देता है, उसी प्रकार नर्तक को अपने अवयवों की क्रिया करनी पड़ती है, ये क्रियायें कभी कभी शब्दों से भी अधिक प्रभाव उत्पन्न करा देती हैं। यदि कोई यों कहे कि वर्ण तो अनित्य हैं. अतः वे लम्बे, चौडे. अर्थ के प्रतिपादक नहीं होसकते हैं इस कारण अर्थों की प्रतिपत्ति कराने का हेत शब्द-स्फोट मान लिया जाता है, तब तो हम जैन भी कह देंगे कि क्रिया भी तो अनित्य है, कोई भी क्रिया बड़ी देर तक होने योग्य अभिनेय अर्थ की प्रतिपत्ति नहीं करा सकती है, अतः वाक्यस्फोट के समान हस्त स्फोट' या गन्ध स्फोट प्रादि भी वैयाकरण को अभीष्ट कर लेने चाहिये, ऐसा प्राचार्यों की ओर से प्रापादन किया जारहा है।
एनेन विकुटितादिः पादरफोटो हमनपादममायोगलक्षणः करणस्फोटः, करणद्वयरूपमात्रिका म्फोटो. मात्रिका सहस्रलक्ष गहारादिम्फोट न घटत इति वदन्ननवधेयवचनः प्रतिपादिता बोद्धव्यः, तस्यापि स्वस्वावयवाभिव्यंग्यस्य स्वाभिधेयार्थप्रतिपत्तिहेतोरशक्यनिरा. करणात् ।
___ इस उक्त गंध स्फोट आदि या हस्तस्फोट के पापादन करके वैयाकरण के ऊपर पादस्फोट आदि का भी प्रापादन कह दिया गया समझ लेना चाहिये । देखो यदि वैयाकरण यों कहैं कि विकुद्रित यानी शरीर को घुमाना आदि क्रिया स्वरूप पाद स्फोट और हाथ, पावों, का युगपत् व्यापार करते हुए समायोग कर लेना स्वरूप करण स्फोट तथा दोनों करण स्वरूप होरहा मात्रिका स्फोट एवं सहस्रमात्रिकाओं का समूह स्वरूप प्रगहार प्रादिक म्फोट तो घटित नहीं होपाते हैं, क्योंकि इनमें नियम रूप से ज्ञातव्य अर्थ की प्रतिपादकता नहीं देखी जाती है । ग्रन्थकार कहते हैं कि इसप्रकार कह रहा वैयाकरण तो प्रामाणिक वचन कहने वाला नहीं माना जा सकता है, यों कह दिया गया समझ लेना चाहिये । जब कि नर्तक या नर्तकी जनों के अपने अपने अवयवों द्वारा अभिव्यक्त करने योग्य उन पादस्फोट आदि का प्रपने अपने कहने योग्य या अभिनय करने योग्य अर्थों की प्रतिपत्ति के कारण होरहे स्वरूप करके निराकरण नहीं किया जा सकता है।
अर्थात् गाना, बजाना, नाचना, ये तीन तौर्यत्रिक हैं, नाच द्वारा अभियन जो दृष्टा के हृदय में प्रभाव उत्पन्न करता है, वह शब्दों द्वारा साध्य कार्य नहीं है, तभी तो गीतों या अन्य गद्य, पद्यों की मुद्रित पुस्तकों के निकट होने पर भी रुपयों का व्यय कर रसीले पुरुष नाटकों को देखते हैं, बड़ी बड़ी सभागों में हुये श्रेष्ठ वक्ताओं के व्याख्यान यद्यपि पुस्तकाकार छप कर वितीर्ण होजाते हैं। फिर भी श्रोताजन अधिक रुपया व्यय कर वक्ताओं के व्याख्यानों को सुनते हैं, इसका पही रहस्य है,