Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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ग्रन्थ का दो मिनट में सङ्कलनात्मक पारायण कर जाता है ।
तथा वाक्य को सुनने के अनन्तर केवल वरण या पद को ही हेतु मान कर कोई प्रतीति नहीं होती है, यदि ऐसा माना जायेगा तो वाक्य द्वारा उन वर्णों या पदों के एक प्राकार को धारने वाली प्रतीत होने का प्रसंग श्रावेगा जैसे कि वर्ण को या पद को सुन कर वर्ण की प्रतीति हुआ करती है, तिस कारण सिद्ध होता है कि वाक्य के आकार होकर परिणाम गये शब्द द्रव्यको हेतु मानकर उपजी Sararat प्रतीति जैसे एकाकार और अनेकाकार वाली है, उसी प्रकार तिस तिस पद या वाक्यस्वरूप से परिणमने योग्य शब्द द्रव्य भी एक, अनेक प्रकारों वाला वास्तविक रूप से सध जाता है, इसको बाध वाले प्रमाणों का अभाव है । जब शब्द द्रव्य में प्रथंचित् एक प्रौर कथंचित् अनेक प्रकार विद्यमान हैं तो उसके अनुसार हुई वाक्य की प्रतीति भी एक, अनेक प्रकारों को धारेगी ही । अथवा वाक्यप्रतीति को भी दृष्टान्त बना कर शब्द-योग्य द्रव्य में एक अनेक प्रकारों को साध लिया जाय, जैन सिद्धान्त अनुसार सभी पदार्थों में एकत्व और अनेकत्व धर्म विद्यमान हैं । जो एकत्व को ही पदार्थ में मानते हैं, वे अनेकत्व का निषेध करते हैं, तो भी पहिला एकत्व धम और दूसरा अनेकत्व का प्रभाव, यों ही सही, दो धर्म तो पदार्थों में ठहर ही गये, झगड़ा बढ़ाना व्यर्थ है ।
कथं नानाभाषा वर्गापुद्गल परिणामवर्णानामेकद्रव्यत्वमिति चेत् तत्रोपचारान्नानाद्रव्यादिसंतानवत । किं पुनस्तदेकत्वोपचारनिमित्तमिति चेत्, तथा सदृशपरिणाम एव तद्वत् ।
लोक-व
क-वातिक
यहाँ किसी की शंका है, कि भाषावर्गणा स्वरूप अनेक पुद्गल द्रव्यों के पर्याय होरहे वर्णों का भला एक द्रव्य का ही परिणाम होना किस प्रकार बन सकता है ? यों कहने पर प्राचार्य समाधान करते हैं, कि उन वर्गणाओं में एक अशुद्धद्रव्य - पने का उपचार है । जैसे कि अनेक द्रव्य गुण, अविभागो प्रतिच्छेद आदि की संतान को एक कह दिया जाता है । अर्थात् - जैसे दैशिक समुदायवाली धान्य राशि बेचारी अनेक धान्यों से अभिन्न है, उसी प्रकार कालसम्बन्धी प्रत्यासत्ति को धार रहे अनेक संतानियों से सन्तान भी अभिन्न है, एक द्रव्य की नाना पर्यायों को सुलभतया एक कहा जा सकता है, क्योंकि उन सहभावी या क्रमभावी पर्यायों में एक द्रव्य का अन्वित होना प्रसिद्ध है | अतः एक द्रव्य की प्रसंख्यात या अनन्त पर्यायों में मुख्य रूप से भी एकत्व धरा जा सकता है किन्तु नाना द्रव्यों की सन्तानों में तो एकपना उपचार से ही रोपा जा सकता है ।
यहाँ शंकाकार पुनः पूछता है कि उपचार तो निमित्त या प्रयोजन के विना नहीं प्रवर्तता है, अतः अनेक भाषा वर्गणाओं में एकपनके उपचार करनेका निमित्त क्या है ? इसका उत्तर श्राचाय यों कहते हैं कि तिसप्रकार अनेक भाषावर्गणाओं की सदृश परिणति ही एकपन के उपचार का निमित्त कारण है, जैसे कि अनेक द्रव्य या गुणों की सन्तानों में एकपने के उपचार का निमित्त कारण तिस तस प्रकार उनका सदृश परिणामन होना है। अर्थात् जोवकाण्ड गोम्मटसार में 'अणु संखा सखेज्जा