Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम-अध्याय
यदि तुम प्रतिवादियों की यह भी चेष्टा होय कि हम शब्द को कोरा द्रव्य नहीं साध रहे है, और सभी प्रकारों से शब्द को केवल पर्याय भी नहीं साधते हैं, फिर हम शब्द को कैसा स्वीकार करते हैं ? इसका उत्तर यह है कि यह शब्द तो द्रव्य और पर्याय इनका उभय प्रात्मक है, तिस कारण द्रव्यपर्याय-प्रात्मक होने से शब्द के विचार में हमारे ऊपर कोई दाष नहीं पाता है, उस द्रव्य पर्याय स्वरूप शब्द में क्रिया-सहितपन हेतु की भी परमार्थ रूप से सिद्धि होजाती है जो कि "द्रव्यं शब्दः क्रियावत्वात् वाणादिवत्" इस अनुमान में अपर विद्वान् ने हेतु कहा था । शब्द में क्रिया का होना प्रसिद्ध ही है, देखिये अनुकूल वायु चलने पर शब्द की अच्छी प्रतिपत्ति होती दीखती है, अर्थात्-जिस पोर से वायु प्रारही है उसी ओर से बोला जा रहा यदि शब्द सुनाई देवे तो शब्द अच्छा विशदरूप से सुन लिया जाता है। हां यदि वायु पश्चिम से पूर्व की ओर वेग से बह रही है, और वक्ता पूर्व की ओर से पश्चिम दिशा में बैठे हुये श्रोता को कोई शब्द कह रहा है तो ऐसी प्रतिकूल वायु की दशा में वक्ता के शब्द की श्रोता को प्रतिपत्ति नहीं होपाती है, तथा तिरछी वायु चलने पर तो शब्द की कुछ थोडी सी प्रतिपत्ति होजाती है, यानी पूर्व, पश्चिम, दिशा में वक्ता श्रोता बैठे होंय और उत्तर से दक्षिण या दक्षिण से उत्तर की ओर वायु चल रही होय तो शब्द की थोड़ी श्रुति यानी कुछ प्रतिपत्ति कुछ अप्रतिपत्ति होरही देखी जाती है, अतः शब्द के क्रिया या क्रियासहितपन को यों साध दिया जाता है।
यहां तक कह चुकने पर प्राचार्य कहते हैं, कि क्यों जी इस प्रकार गन्ध, रस, आदि को द्रव्यपर्याय-पात्मक क्यों नहीं साधा जाता है ? बतायो। श्री अकलंकपदेव महाराज ने भी 'अर्थ तो गव्य-पर्याय-प्रात्मक है।" इस प्रकार निरूपण किया है, तथा स्पर्श गन्ध, आदिकों को इन्द्रियों के गोचर पदार्थ होजाना कहा जा चुका है, क्योंकि इसी तत्त्वाथसूत्र के द्वितीय अध्याय में स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, शब्द, ये उन इन्द्रियों के विषयभूत अर्थ हैं, ऐसे तत्व-सूचक सूत्र का सद्भाव है।
अथ पर्यायार्थप्राधान्यात् पर्याय एव गंधादयः शब्दस्तथा किमपर्यायः १ शब्दो द्रव्यार्थादेशात् ढव्यनिति चेत, तर्हि तथा विशेषणं कर्तव्यं । स्याद्रव्यं शब्द इति तदप्रयुक्तमपि वा तषितव्यं । ततो नैकांतेन द्रव्यं शब्दः स्याद्वादिनां सिद्धो यतस्तस्य द्रव्यत्वप्रतिषेधेऽपसिद्धांतः तस्यामूर्तद्रव्यत्वप्रतिषेधाद्वा न दोषः कश्चिदवतरति
अब यदि पूर्वपक्ष को धारने वाले यों कहैं कि पर्याय को अपना ज्ञातव्य समझ रही पर्यायाथिकनय के अनुसार पर्याय अर्थ की प्रधानता होजाने से गन्ध आदिक तो पर्यायें ही हैं, द्रव्य नहीं। तब तो हम जैन कहेंगे कि तिस प्रकार पर्याय अर्थ की प्रधानता से शब्द को क्या पर्याय नहीं समझ रखा है ? यानी शब्द भी पर्याय से भिन्न नहीं है. यदि तुम यों कहो कि द्रव्याथिकनय अनुसार कथन करने से शब्द को द्रव्य कह दिया जाता है, तब तो हम स्याद्वादवादी कहदेंगे कि शब्द को द्रव्य कहते हुये तिस प्रकार 'द्रव्य मर्थ पर दी गयी दृष्टि अनुसार, यों विशेषण करना चाहिये "शब्द कथं.