Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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eete वार्तिक
प्रस्मदादि वाह्येन्द्रिय ज्ञान परिच्छेद्यत्वे सति गुरणत्व हेतु का योगी की वहिरंग इन्द्रियों से उपजे हुये प्रत्यक्षज्ञान के विषय होरहे परमाणु रूप आदि करके व्यभिचार होजायगा । आचार्य कहते हैं कि यह तो वैशेषिकों को शका नहीं करनी चाहिये क्योंकि तुम्हारे सिद्धान्त का विचार कर ही हेतु में " अस्मदादि " इस पद का ग्रहण है प्रर्थात् हम आदि लौकिक प्रत्यक्ष करने वाले जीवों की वहिरंग इन्द्रियों से परमाणु के रूप या श्रात्मा के सुख की ज्ञप्ति नहीं हो पाती है सन्निकर्ष को प्रत्यक्षप्रमाण मानने वाले वैशेषिकों ने तीन प्रकार के अलौकिक सन्निकर्षों में योगज सन्निकर्ष भी स्वीकार किया है । युक्त और पुरंजान स्वरूप दो योगियों के समाधि विशेष से उत्पन्न हुआ सम्पूर्ण पदार्थों का ज्ञान श्रीर चिन्ता की सहकारिता से उपजा सूक्ष्म, स्थूल, व्यवहित विप्रकृष्ट अर्थों का प्रत्यक्ष होजाता है वे योगी तो हम प्रादि से विलक्षण हो रहे जीव ही समझे जायेंगे. जैन सिद्धान्त अनुसार यदि हेतु कहा जाता तो " अस्मद। दि" पद व्यर्थ ही था क्योंकि चाहे सर्वज्ञ होय या अवधि ज्ञानी. मन:पर्ययज्ञानी होय, वहिरग इन्द्रियों से ये प्रतीन्द्रिय पदार्थों को कथमपि नहीं जान पाते हैं तथा हमारे वाह्य ेन्द्रियज्ञानपरिच्छेद्यत्वे सति गुणत्व हेतु का पृथिवीत्व, घटत्व, आदि जातियों करके तथा नित्य द्रव्यवृत्ति अन्त्य विशेषों से नहीं किन्तु प्रनित्य द्रव्यों के विशेष करके अथवा अनित्य द्रव्यों के विशेषरण हो रहे समवाय करके एवं हलन चलन. श्रादि क्रिया करके व्यभिचार दोष प्राजाय यह तो नहीं मान लेना चाहिये क्योंकि गुरणत्वात् ऐसा हेतु का विशेष्य दल कहा गया है ।
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- प्रर्थात् भले ही " उद्भूतरूपं नयनस्य गोचरो, द्रव्याणि तद्वन्ति पृथक्त्वसंख्ये । विभागसंयोगपरापरत्वद्रवत्वं परिमाणयुक्तम् ॥ ५४ क्रियां जाति योग्यवृत्ति समवायं च तादृशं । गृह्णाति चक्षुः सम्बन्धादालोकोद्भूतरूपयोः ॥ ५५ ॥ ( कारिकावलो ) इस नियम अनुसार पृथिवीस्व प्रादि जातियों का प्रनित्य द्रव्य, गुरण कर्मों में वर्त रहे समवाय का और प्रत्यक्षयोग्य क्रिया का, वहिरग इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष हो जाना वैशेषिकों के यहाँ मान लिया गया है, वे पृथिवीत्व प्रादिक कारणगुणपूर्वक नहीं है किन्तु गुण नहीं होने से उन करके व्यभिचार नहीं होपाता है वैशेषिकों के सिद्धान्त अनुसार शब्द में गुरणपना मान लेने से इस प्रकार शब्द में कारणगुणपूर्वक पन या प्रकारणगुणपूर्वकत्वाभाव का साघन करने पर स्याद्वादियों के यहाँ अपसिद्धान्त यानी सर्वज्ञ की आम्नाय करके प्राप्त होरहे स्वकीय सिद्धान्त से कोई विरोध नहीं आता है क्योंकि जैन सिद्धान्त में शब्द का पर्यायरूप से कथन किया गया है और पर्याय का गुणपना मान लिया गया है ।
इसी बात को यों श्री प्रकलंकदेव महाराज तिस प्रकार कह रहे हैं कि छाया, श्रातप उद्योत, श्रादि के समान शब्द नामक स्कन्ध भी पुद्गल द्रव्य की पर्याय है अर्थात् " सहभाविनो गुणाः क्रमभाविन: पर्यायाः" यों गुणों को द्रव्य का सहभावी पर्याय प्रभीष्ट किया ही गया है तभी तो पुद्गल द्रव्य के अनादि से अनन्त काल तक साथ हो रहे रूप, रस, आदि गुरण सहभावी पर्याय हैं और जीव के चेतना, सुख, वीर्य, सम्यक्त्व, चारित्र, अस्तित्व, वस्तुस्व, प्रादि गुण सहभावी पर्याय माने गये हैं " गुणसमुदायो द्रव्यं " गुरणों का समुदाय द्रव्य है, नित्य गुणों का समुदाय जैसे नित्यद्रव्य है उसी प्रकार पर्याय शक्ति या अनित्य गुणों का तादात्म्यक पिण्ड होरहा शुद्ध द्रव्य है । संसारी जीव में भावयोग, पर्याप्ति, नादि तो पर्यायात्मक गुण हैं, अग्नि