Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वार्तिक
२४६
सद्भाव साध दिया जाता है ।
अथवा शब्द गुण का प्राश्रयपना होते सन्ते पुद्गल में हम आदि द्वारा अप्रकट होने के कारण नहीं देखे जा रहे भी स्पर्श, रस, गन्ध, वर्णों का सद्भाव साध दिया जाता है जैसे कि उद्भूत गन्ध गुरण का आश्रय होते हुये गन्धिल द्रव्य में अनुद्भूत हो रहे स्पर्श, रूप, रसों, क सद्भाव सिद्ध किया जा चुका है, देखिये कस्तूरी, इत्र, प्रादिक गन्धयुक्त द्रव्यों से कुछ दूर प्रदेशों में सुगन्ध को भले प्रकार प्रत्यक्ष कर रही नासिका इन्द्रिय में अच्छा प्राप्त हो रहा गन्ध बेचारा अपने आश्रय-भूत द्रव्य से रहित हो रहा तो नहीं सम्भवता है, गुरण या पर्याय बेचारे द्रव्य के विना अकेले तो कथमपि नहीं ठहर सकते हैं आश्रय हो रहे द्रव्य के विना यदि गुण ठहर जाय तो गुरणपन के प्रभाव का प्रसंग प्रजायगा " द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणा: " यह गुणों का सिद्धान्त लक्षण है, अतः नाक में आया हुआ गन्ध अपने आधार होरहे द्रव्य के साथ ही आवा वह गन्ध का श्राश्रयभूत द्रव्य भी हम तुम श्रादि करके देख लेने योग्य स्पश रूप रमों का धारी नहीं है और उस गन्ध द्रव्य में अप्रकट होकर वर्त रहे स्पर्श, रूप, रस नहीं होंय यह तो श्राप वैशेषिक नहीं मान सकते हैं क्योंकि पृथिवी में गन्ध के साथ रूप, रस, स्पर्शो का अनिवाय अविनाभाव सम्बन्ध है पृथिवी द्रव्य से निर्मित होते सन्ते गन्ध युक्त माने गये कस्तूरी आदि में स्पर्श, रूप, रसों के भी ठहरने का कोई बिरोध नहीं है ।
यथा वायोरनुपलभ्यमान रूपर पगन्धस्य तेजसश्चानुपलभ्यमानरसगधस्य सलिलस्य चानुपलभ्यभानगधस्य पर्याया अनत्यनुमानागम स्पर्शरूपरसगन्धाः प्रसिद्ध / स्तथानुरलभ्यमानस्पर्शरूपरसगंधस्यापि भाषावगं । पुद्गलस्य पर्यायः शब्दो निस्संदेहं प्रसिद्धत्येव । आचार्य महाराज अभी वैशेषिकों को समझा ही रहे हैं कि जिस प्रकार अनुद्भूत होने के कारण नहीं देखे जा रहे रूप, रस, गन्धों को धार रही वायु के और इन्द्रिय प्रत्यक्ष द्वारा नहीं देखे जा रहे अप्रकट र गन्धों को धारने वाले तेजोद्रव्य के तथा नासिका द्वारा नहीं जानी जा रही अव्यक्त गन्ध के धारी जल के, पर्याय हो रहे स्पर्श, रूप, रस गन्ध गुरण प्रसिद्ध हैं, इस प्रसिद्धि में अनुमान प्रमाण या समीचीन ग्रागम का कोई प्रतिक्रमण नहीं होता है तिसी प्रकार अप्रकट होने के कारण हम तुम आदिकों को नहीं भी दीख रहे स्पर्श, रूप, रस, गन्धों को धारनेवाले भाषावर्गणा स्वरूप पुद्गल की पर्याय होरहा शब्द संदेह - रहित प्रसिद्ध हो जाता ही है । र्थात् भाषावर्गरणा नामक पुद्गल के परिणाम होरहे अकेले शब्द का ही वहिरिन्द्रिय से प्रत्यक्ष होता है, भाषावर्गणा की या उससे बने हुये शब्द की रूप, रस, गन्ध, स्पर्श परिणतियों का वहिरंग इन्द्रियों से प्रत्यक्ष नहीं होता है जैसे कि वायु की पर्यायों में यद्यपि
रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, चारों हैं फिर भी वायु के प्रकट स्पर्श का त्वचाइन्द्रिय से प्रत्यक्ष होजाता : है अप्रकट रूप, रस, गन्ध का नहीं ।