Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वार्तिक
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वखानने वाले अन्य पण्डित का प्रतिक्षेप कर देते हैं, उसी प्रकार वैशेषिकों का भी प्रतिक्ष ेप किया जा सकता है। वैशेषिक जो समाधान करंगे वही समाधान शब्द को भाषावर्गणा नामक पुद्गल की पर्याय मानने में किया जा सकता है, कोई अन्तर नहीं है ।
नदी, सरोवर, बावड़ी में भरा हुआ स्वच्छ जल कुछ नीला दीखता है यह सूर्य प्रकाश के निमित्त से हुआ गम्भीर जल का औपाधिक रूप है, उसी जल को यदि प्रकाश में उछाला जाय तो प्रतीत होता है । जल में घुस गये कुछ प्रकाश और कुछ अन्धकार के अनुसार जल नीला दीख जाता है, जैसे कि कषैली हर्र आदि को खा लेने के पश्चात् पोये गये जल का स्वाद पहिले से अधिक मीठा भासता है, नील आकाश का प्रतिविम्ब पड़ना भी स्वच्छ जल को नील दिखाने में सहायक होजाता है । वस्तुतः विचारा जाय तो आकाश अत्यन्त परोक्ष है, प्रांखों से नहीं दीख सकता है । यहाँ से हजारों कोसों ऊपरले प्रदेश में पाई जा रही सूपकान्ति और अन्वकार का सम्मिश्रण होजाने से नीले नीले देखे जा रहे अभ्र मण्डल को व्यवहारीजन आकाश कह देते हैं। सच पूछो तो वह अन्धकार या प्रभा का अथवा दोनों का मिल कर बन गया काई रूप है, तभी तो रात्रि में अन्धकारवश वह नभोमण्डल काला काला दीखता है, उद्योत, विजली, की चमक आदि से भी बादलों में कतिपय वर्ण दीखने लग जाते हैं, ये सव पुद्गल द्रव्य की पर्यायें हैं ।
यदि पुनः स्पर्शादयो द्रव्याश्रया एव गुत्वात्सुखादित् यतद्द्रव्यं तदाश्रयः स वायुरनलः सलिलं चितिरित्यनुमान सिद्धत्वान्स्पर्श विशेष दीनां वाय्वादिगुणन्वे शब्दोपि सामान्यार्पण्या किं न भाषावर्ग पुद्गलद्रव्येण सहभावीष्टा येन तद्गुणो न स्यात् । विशेषार्पणात् यथा रूपादयः पर्यायास्तथा शब्दोपि पुद्गलपर्याय इति कथमसौ द्रव्य स्यात् ? षड्द्रव्यप्रतिज्ञानविरोधाच्च ।
यदि फिर वैशेषिक यों कहैं कि स्पर्श श्रादिक तो पक्ष ) द्रश्य के प्रश्रय पर ही ठहर सकते हैं | ( साध्य ) गुण होने से ( हेतु ) सुख प्रादि के समान ( अन्वय दृष्टान्त ) । जो कोई उनका अधिकरण होरहा द्रव्य है, वह वायु, अग्नि, जल, अथवा पृथिवी होसकेगा । इस प्रकार अनुमान
सिद्ध होजाने के कारण श्रनुष्णाशीत नामक स्पर्शविशेष या भास्वररूपविशेष, सांसिद्धिक द्रवत्व आदि को वायु, अग्नि, आदि का गुणपना है यों कहने पर तो हम जैन कहते हैं कि शब्द की सामान्य धर्म की विवक्षा करने से भाषावगणा नामक पुद्गलद्रव्य का सहभावी क्यों नहीं इष्ट कर लिया जाय ? जिससे कि शब्द उस भाषावर्गरणा का गुण नहीं हो सके ।
अर्थात् - द्रव्य के सहभावी गुण होते हैं । " सहभाविनो गुणाः " क्रमभाविन: पर्यायाः,, सामान्य प्रशों के अनुसार रूप, रस, आदि भी तो पुद्गल द्रव्य के गुण माने गये हैं, तद्वत् सामान्य रूप से भाषा वर्गणा का सहभावी शब्द है, कण्ठ, तालु, आदि निमित्तों के मिलने पर कोई भी भाषा वर्गणा किसी भी प्रकार यदि शब्द होकर परिणाम सकती है, हाँ विशेष प्रशों को अर्पण करने से तो जिस