Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम - अध्याय
कथमन्यथैव माचचाणः प्रतिक्षिपते परैः । न वायुगुणोनुष्णाशीतस्पर्शोऽपाकज: उपलभ्यत्वे सत्यम्मदाद्यनुपलभ्यमान गन्ध श्रयत्वात्सुखादिवत् । तथा न भासुररूपोष्ण स्पर्शस्तेजोद्रव्यगुण उपलभ्यत्वे सत्यस्मदाद्यनु लभ्यमानगवाश्रयत्वात् तद्वत् । तथा न शीतस्पर्शनीलरूपमधुररपाः सलिलगुणा : उपलभ्यन्वे सत्यस्मदाद्यनुपलभ्यमानगंधाश्रयत्वात्तद्वदेवेति ।
श्राचार्य ही समझा रहे हैं कि अन्यथा यानी उन उन द्रव्यों में आवश्यक होरहे वे वे विशेषगुरण नहीं दीखने मात्र से यदि नहीं माने जायगे तो इस वक्ष्यमाण प्रकार कह रहा कोई आक्षेपकर्ता तो इन दूसरे वैशेषिक विद्वानों करके भला कैसे निराकृत कर दिया जाता है ? प्राक्ष ेपकर्ता का वैशेषिकों के प्रति यह वचन है कि वैशेषिकों करके “प्रपाकज ऽनुष्णाशीतः स्पशंस्तु पवने मतः,, वायु में अनुष्णाशीत होरहा अपाकज ( अग्निपाक से नहीं उपजा ) स्पर्श मानागया है, किन्तु अनुष्णाशीत होकर अपाकज होरहा स्पर्श (क्ष) वायु का गुण नहीं है । ( साध्य ) उपलम्भ करने योग्य होते सन्ते हम आदि करके नहीं देखेजारहे रूप, रस, गन्धों का प्राश्रय होजाने से ( हेतु ) सुख आदि के समान / अन्वयदृष्टान्त ) । तथा दूसरा अनुमान यों है । कि " स्पर्श उष्णस्तेजसस्तु स्याद्रूपं शुक्लभास्वरं' इस प्रमाण अनुसार माने गये चमकोला शुक्लरूप और उष्णस्पर्श ( पक्ष ) तेजो द्रव्य के गुण नहीं हैं ( साध्य ) दीखने योग्य होते सन्ते हम आदि करके तेजोद्रव्य में गन्ध का श्राश्रयपना नहीं देखा जा रहा होने से ( हेतु ) उसी के समान यानो जैसे कि तेजो द्रव्य गुण ये सुख, ज्ञान, ग्रादिक नहीं हैं, ( अन्वयदृष्टान्त ) |
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तिसी प्रकार तीसरा अनुमान यों कहा जा रहा है कि शीत स्पर्श और नील रूप या प्रभास्वर शुक्ल तथा मीठा रस ये ( पक्ष जल के गुण नहीं समझे जा सकते हैं । ( साध्य ) क्योंकि इनके आश्रय माने गये जल द्रव्य में उपलम्भ होते सन्ते हम आदि करके गन्ध का श्राश्रयपना नहीं देखा जाता है । जैसे कि वे ही सुख प्रादिक जल के गुरण नहीं माने गये हैं, केवल पृथिवी के ही तो अभीष्ट किये गये गुण रूप आदि प्रसिद्ध होजाते हैं । भावार्थ - वैशेषिक जैसे यों कह बैठते हैं, कि जिस भाषा वर्गणा नामक पुद्गल के स्वकीय गुरण मान लिये गये रूप, रस, गन्ध, स्पर्शो, की हमें उपलब्धि नहीं होती है, अतः शब्द उस भाषावर्गरणा पुद्गल की पर्याय नहीं माना जा सकता है । उसी प्रकार दूसरा प्रतिवादी भी वैशेषिकों को यों उलाहना दे सकता है, कि जिस वायु के रूप, रस, गन्ध हमें उपलम्भ होने योग्य होते सन्ते भी नहीं दीख रहे हैं, उस वायु का गुरण अनुष्णाशीत स्पश नहीं हो सकता है। इसी प्रकार जिस जल का प्रत्यक्ष करने योग्य गन्ध हमें नहीं दीखता कहा जाता है उस जल के शीत स्पर्श प्रभास्वर शुक्ल रूप और मधुर रस ये भी गुरण नहीं कहे जा सकते हैं । जैसे कि जिस शरीर में प्रत्यक्ष करने योग्य सिर नहीं दीखता है । उसका धड़ जीवित नहीं माना जा सकता है, फिर वैशेषिकों ने "वर्णः शुक्लो रसस्पर्शों जले मधुरशीतली" क्यों कहा था अपने ऊपर पक्षपात करते हुये दूसरे पर उसी आक्षेप को करना उचित माग नहीं है, पर विद्वान् वैशेषिक जैसे