Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक - वार्तिक
प्रत्यक्षत्वाद्रूपवदिति । तदपि प्रत्यः ख्यातं पुद्गल स्कन्धस्यैकद्रव्यस्य शब्दाश्रयत्वोपपत्तेः सिद्धसाधनन्त्रात् । गगना श्रयत्वे साध्ये साध्यविकलो दृष्टान्तः स्याद्ध तु विरुद्धः । तथाहिस्पर्शवदेकद्रव्याश्रितः शब्दः सामान्यां शेष च्वे सति वाह्मकेन्द्रियप्रत्यक्षत्वात् रूरादिवत् । न च हेतोरात्मना व्यभिचारस्तस्यात्तः करण प्रत्यक्षत्वात् नापि घटादिना तस्य वाह्य ेन्द्रियद्वय प्रत्यक्षत्वात् न रूत्वेन तस्य(सामान्यविशेषवच्चान्नापि सयोगेन तस्य वाह्यान केन्द्रियप्रत्यक्षत्वाद्वय गुलसंयागस्यानेकद्रव्य। श्रतस्य स्पर्शनन च साक्षात्करणात् । ततः सूक्तं न शब्दः खगुणो बाह्ये न्द्रियप्रत्यक्षत्वात् गन्धादेिवादात तस्य पुद्गलपयायत्वव्यवस्थितः ।
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यहां बाद्ध बोलते हैं, इस बात का नयायिक कहैं ता और भी अच्छा लगेगा कि शब्द ( पक्ष ) एक ही द्रव्य के प्रति हारहा है । ( साध्य ) सामान्य विशेषवान् होते सन्ते वहिरंग एक इन्द्रिय द्वारा प्रत्यक्ष किय जाने से ( हेतु ) रूप के समान ( अन्वयदृष्टान्त ) । प्राचार्य कहते हैं कि इसप्रकार जो ने कहा था इस उक्त कथन करके इसका भो खण्डन कर दिया गया है, क्योंकि इसमें सिद्धसाधनदाष है, बध जाने के कारण एक अशुद्ध द्रव्य होरहे पुद्गल स्कन्ध को शब्द का प्राश्रयपना निर्णीत कर दिया गया है | अतः आप उसा के उसी सिद्ध होरह शब्द के एक द्रव्य । श्रतपन सिद्धान्त को साध रहे हैं।
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यदि एक द्रव्य पद से नैयायिक या बौद्धों का यह अभिप्राय होय कि एक श्राश्रयभूत गगननामक द्रव्य के आश्रित हारह शब्द का साध्य किया गया है । तब ता तुम्हारे अनुमान का दृष्टान्त साध्य से विकल हाजायगा क्योंकि रूपता आकाश के आश्रित नहीं है, काई भा वादा आकाश में रूप गुण कावत रहा नहीं स्वाकार करता है, और तुम्हारा हेतु विरुद्ध हत्वाभास हुना जाता है, कारण कि गगन के प्राश्रित हान से विरुद्ध हारह पृथिवा आदि के आश्रितपन के साथ हेतु की व्याप्ति है । इसी बात को यों स्पष्ट कर समझ लीजियेगा कि शब्द ( पक्ष ) पशवाले एक द्रव्य के आश्रित होरहा है, ( साध्य ) क्योंकि सामान्य के विशेष हारहे गुरणत्व, शब्दत्व, आदि जातिया का धारण करते सन्ते वाह्य एकेन्द्रिय-जन्य प्रत्यक्ष का विषय वह है ( हेतु ) । रूप, रस आदि के समान अन्वयद्दष्टान्त ) हमारे इस हेतु का श्रात्मा करक व्यभिचार नहीं आता है, क्योंकि उस आत्मा का बाहरंग इन्द्रियों से प्रत्यक्ष नहीं होता है । अन्तरंग मन इन्द्रिय करके आत्मा का प्रत्यक्ष होना सब ने स्वीकार किया है, तथा घट, पट, आदि करके भी उस हेतु का व्यभिचार नहीं है, क्योंकि वहिरंग हारही दा स्पर्शन और चक्षुः इन्द्रियों करके घट आदि के प्रत्यक्ष होने की योग्यता है और हमारे हेतु में वहिरंग एक इन्द्रिय द्वारा प्रत्यक्ष होना यह पद पड़ा हुआ है। तथा रूपगुण में रहने वाली रूपत्व जाति करके हमारे हेतु में व्यभिचार दोष नहीं आता है, क्याकि जाति में पुनः कोई साधारण सामान्य सत्ता द्रव्य या विशेष सामान्य पृथिवीत्व, घटत्व, आदि नहीं रहता है " जाती जात्यन्तरानङ्गीकारात् " अतः रूपत्व जाति किसी भी सामान्य विशेष का धारने वालो नहीं है, हेतु का सत्यन्त विशेषरण वहां नहीं घटा । तथा संयोग गुण करके भो हेतु का व्यभिचार नहीं प्राता है क्योंकि वह संयोग तो वह रंग अनेक इन्द्रियों द्वारा हुये प्रत्यक्ष का गोचर है यद्यपि दो अंगुलियों का सयोग विचारा स्पर्शं वाले अनेक द्वयों के प्रति है किन्तु उस संयोग का चक्षु और स्पर्श इन्द्रिय करके भी साक्षात्कार होजाता है । तिस कारण हमने यो दूसरो वार्तिक में बहुत अच्छा कहा था कि शब्द पक्ष ) बाकाश का गुण नहीं
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