Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
पंचम-अध्याय
२३५
अनिन्द्रिय -जन्य प्रत्यक्ष का, और स्वसंवेदन प्रत्यक्षका, तथा सुख प्रादि को प्रतिभास कर रहे ज्ञान का, एवं चक्षु आदि द्वारा ज्ञात किये अर्थों के स्मरणका, विशद प्रत्यक्ष होना स्वीकार किया गया है।
भावार्थ-भले ही स्मरण,प्रत्यभिज्ञान,प्रादिक परोक्ष ज्ञान होय, संशय,विपयय,विचारे मिथ्याज्ञान होंय किन्तु इनका स्वसवेदन तो प्रत्यक्ष ही होरहा है । भावप्रमेयापेक्षायां प्रमाणाभासनिह्नवः । वहिः प्रमेयापेक्षायां प्रमाणं तन्निभं च ते" ( देवागम )। सुख, इच्छा, वेदना, आदि को जानने वाले ज्ञान का स्वसम्वेदन संज्ञी जीव के प्रमाणात्मक हुआ मानस प्रत्यक्ष कहा जा सकता है , ययपि स्मरणज्ञान परोक्ष है फिर भी चक्षु आदि से जाने जाचुके अर्थ के स्मरण का पुन: मन: इन्द्रिय करके प्रत्यक्ष होना सब को अभीष्ट है, अतः इन्द्रिय और प्रनिन्द्रिय से उत्पन्न हये एक देश विशदज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहदेते हैं, गगन,काल,प्रादि अतीन्द्रियपदार्थोमें मानस प्रत्यक्ष द्वारा अवगति होना कथमपि नहीं इष्ट किया गया है।
नचै मतिज्ञानस्य सर्वद्रव्यविषयत्ववचनं विरुध्यते, गगनादीनामतीद्रियदव्याणां सार्थानुमानमतिविषयत्वाभ्युपगमात् । ।
यहां कोई आक्षेप करता है कि " मतिश्रु तयोनिबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु " यह श्री उमास्वामी महाराज द्वारा निर्णीत हो चुका है " तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं " वह मतिज्ञान इन्द्रिय और अनिन्द्रिय को निमित्त पाकर उपजता है यह भी समझा दिया गया है प्राकाश में भले ही वहिरंग इन्द्रियों की प्रवृत्ति नहीं होय, यह उचित है किन्तु अनिन्द्रिय मन से जन्य भी मतिज्ञान की विषयता यदि अाकाश में नहीं मानी जायगी तो इस प्रकार मतिज्ञान के द्वारा सम्पर्ण व्यों का विषय होजाना यह सूत्रकार का कथन विरुद्ध पड़ जाता है, जैन आचार्यों को परस्पर-विरोधी ववन नहीं बोलना चाहिये । प्राचार्य कहते हैं कि यह प्राक्षेप नहीं करता क्योंकि " मतिस्मृतिः संज्ञाचिन्ताभिनिरोध इत्य नर्थान्तरम् " इस सूत्र करके अनुमान ज्ञानको मतिज्ञान स्वरूप ठहराया है।
"अत्थादो प्रत्यंतरमुबलभंतं भरणंति सुदणाणं ।
" आभिणिवोहियपुव्वं णियमेरिण ह सहजं पमुहं " ( गोम्मटसारजीवकाण्ड ) ___इस लक्षण गाथा अनुसार अर्थ से अर्थान्तर का ज्ञान श्र तज्ञान समझा जाता है । अर्थात् जहाँ साधन से साध्य का भेद दृष्टिगोचर होरहा है वहाँ न्यारे ज्ञापकहेतु से हुआ साध्य का ज्ञान तो श्र तज्ञान कहा जायगा किन्तु साध्य और साधन में कथंचित् अभेद को विचारते, हुये जो अनुमान प्रवर्तेगा वह मतिज्ञान कहा जायगा। स्वार्थानुमान और परार्थानुमान यों अनुमान के दो भेद हैं अभिनिबोधनामक मतिज्ञान स्वार्थानुमान है, परार्थानुमान तो श्रु तज्ञान में जायगा । प्राकाश, काल, धर्म प्रादि अतीन्द्रिय द्रव्यों को हम स्वार्थानुमान नामक मतिज्ञान का विषय होना स्वीकार करते हैं, अतः कोई पूर्वापर विरोध नहीं है । मन इन्द्रिय से सुख, वेदना, प्रात्मा आदि पदार्थों का सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष होजाता है. तथा अनिन्द्रिय नामक मन को पालम्बन