Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम-प्रध्याय
है ( साध्य ) वहिरङ्ग इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष कियागया होने से ( हेतु ) गन्ध, रस, आदि के समान (अन्वयदृष्टान्त । । कारण कि उस शब्द को पुद्गल द्रव्य का पर्यायपना युक्तिपूर्वक व्यवस्थित कर दिया है, यहां तक पहिली वात्तिक के विवरण में एक विद्वान् करके उठाये गये शब्द को आकाश के गुण होने के प्राक्षेप का निराकरण कर दिया है । अब वहीं उठाये गये शब्द को अमूर्त द्रव्य कहने वाले किसी अन्य विद्वान् के कटाक्ष का ग्रन्थकार निवारण करते हैं ।
तथा नामूर्तिद्रव्यं शब्दः वाह्येन्द्रियप्रत्यक्षात् घटादिवत् । न नभमा व्यभिवार: साधनस्य, नभमो वाह्यन्द्रियाप्रत्यक्षत्वात् । ननु च शुषिरप्य चक्षुषा स्पर्शनेन च माक्षात्करणाघच्छुषिरं तदाकाशमिति वचनादाडेंद्रियप्रत्यक्ष मेवाकाशं तसं या प्ररूपणादिति चेत्, नैतसन्यं, शुषिरस्य घनद्रव्याभावरूपत्वादुपचारतस्तत्राकाशव्यपदेशाद घनद्रव्याभावस्य च द्रव्यान्तरमद्भावरूपत्वात् । तत्र चक्षुषः स्पर्शनस्य च व्यापारात् । परमार्थतत्प्रत्यक्षत्वामानानभसः तथं हि-नभो न वाह्य न्द्रियप्रत्यक्षममूर्तद्रव्यत्वादात्मादिवत् यत्तु वाह्यन्द्रियप्रत्यक्षं तन्नामूर्तद्रव्यं यथा घटादिद्रव्यं इति न नभसा व्यभिचारी हेतुः।
तथा शब्द ( पक्ष ) अमूर्त द्रव्य नहीं है (साध्यदल) वहिरंग इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष का विषय होने से ( हेतु ) घट आदि के समान (अन्वयरष्टान्त )। हमारे इस वाह्येन्द्रिय प्रत्यक्षत्व हेतु का प्राकाश करके व्यभिचार नहीं पाता है। क्योंकि अत्यन्त परोक्ष प्राकाश का वहिरंग इन्द्रियों से प्रत्यक्षज्ञान नहीं होने पाता है। यहाँ कोई प्रश्न उठ ते हैं, कि छिद्र का चक्षु या स्पर्श इन्द्रिय करके प्रत्यक्ष किया जारहा है, और जो छेद है, वह आकाश है। ऐसा शास्त्रीय वचन है, अतः आकाश भी वहिरंगइन्द्रिय जन्य प्रत्यक्ष का विषय है ही। उस प्राकाशका “यह छेद, यह कुणा, यह मुख,, आदि इस प्रकार यह ये" ऐसे प्रत्यक्षसूचक इद शब्द की वाच्यता करके निरूपण किया जाता है। अर्थात् -यह मोरी बडी है, यह छेद छोटा है,यह कुप्रा गहरा है, मुखमें कोर धर दो, कान में दवाई डाल दो, इसी प्रकार ऍड़ा, गुदस्थान, तिखाल, घर, गुहा, ये सव आकाश स्वरूप ही पदार्थ हैं, चारों ओर के मिट्टी या ईट के घेरे को मोरी नहीं कहते हैं, किन्तु घेरे के बीच में प्रागये आकाश को मोरी कहा जाता है, चलनी में से चून छनता है, कोतगली में मनुष्य जा रहा है, पेट में रोटी रखी है, यहां गली, पेट, आदि शब्दों से पोल ही समझी जाती है और जो पोल है, वह आकाश है, इस प्रकार आँखों या स्पर्शन से प्राकाशका प्रत्यक्ष भी स्पष्ट किया जा रहा है । अतः जैनों के हेतु का आकाश करके व्यभिचार दोष लगना तद. वस्थ रहा।
__इस प्रकार कह चुकने पर तो ग्रन्थकार कहते हैं कि यह कहना सत्य नहीं है, कारण कि छेद तो धने द्रव्यों का प्रभाव स्वरूप है, अतः उपचार से उस छेद में प्राकाशाने का वचनव्यवहार कर दिया जाता है । वस्तुतः विचारा जाय तो जेन सिद्धान्त में तुच्छ प्रभाव स्वीकार नहीं किया गया है।