Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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लोक-वातिक
इस पंक्ति का अर्थ यह भी किया जा सकता है, कि अनेक अतिशयों से युक्त होरहे केवलज्ञानं के स्वरूप या श्रु न के प्रतिपादन का कारण होरहा श्री अर्हन्त परमेष्ठी का शब्द भी अनक्षर-आत्मक है। प्राचीन विद्वानों द्वारा सुना जा रहा है, कि केवलज्ञानी महाराज की सर्वांगों से उपज रही भ ष, अनक्षर-प्रात्मक है पीछे देवकृत अतिशयों द्वारा श्रोताओं के कानमें अक्षर-प्रात्मक परिणम जाती है, प्रस्तु-इतना अवश्य कहना है कि केवलज्ञानी महाराज की भाषा को सर्वथा अनक्षर-प्रात्मक कहने में जी हिचकता है "देवकृतो ध्वनिरित्यसदेतद्देवगणस्य तथा विहतिः स्यात् । साक्षर एव च वर्ण-समूहा. न्नैवविनार्थगतिर्जगति स्यात्,, इस पर भी विद्वानों को विचार करना चाहिये, हाँ सयोगकेवली के " ण य सच्चमोसजुत्तो जो दुमणोसो प्रसच्चमोसमणो,, यह अनुभय वचन सम्भवता है गोम्मटसार जीवकाण्ड में "मज्झिमच उमणवयणे सण्णिप्पहदि द जावखीणोत्ति । सेसाणं जोगित्ति य अभयव. यणं तु वियलादो,, विकलेन्द्रियों से प्रारम्भ कर तेरहमे गुणस्थान तक अनुभय वचन स्वीकार किया है । सो ये अक्षर अनक्षर-आत्मक शब्द तो द्वीन्द्रिय प्रादि जीवों के कण्ठ तालु, आदि अवयवों द्वारा किये गये प्रयोग (पुरुषार्थ ) को निमित्त पाकर ही उपजते हैं।
अभाषात्मको द्वधा प्रयोगविलसानिमित्तत्वात्। तत्र प्रयोगनिमित्तश्चतुर्धा,ततादिभेदात् । चर्मतननात्ततः पुस्करादिप्रभवः, नंत्रीकृतो विततो वी गादिममुद्भवः, कांस्यतालादि जो घनः, वंशादिनिमित्तः शौषिरः, विलसानिमित्तः शब्दो मेघादिप्रभवः ।
दूसरा उस भाषात्मक शब्द से विपरीत होरहा अभाषात्मक शब्द तो दो प्रकार है पहिला प्रायोगिक तो जीव-प्रयोगों को निपित्त पाकर उत्पन्न होता है और दूसरा वैनसिक तो जीव प्रयत्न के अतिरिक्त अन्य सभी शब्द उत्पादक जड़ कारणों की निमित्तता अनुसार उपज जाता है, उन दा में प्रयोग को निमित्त पाकर हुमा अभाषात्मक शब्द तत, वितत, आदि भेदों से चार प्रकार इष्ट किया गया है, चमड़ा के तनने से जो प्राघात पूर्वक शब्द उपजता है वह तत है, पुष्कर ( ढप ) नगाड़ा आदि वादित्रों से उपजा हुमा शब्द तत है। तांत बजा कर किया गया शब्द वितत है जो कि वीणा, सारगी चिकाड़ा, आदि बाजों से सुन्दर उपज रहा है। जो कांसे के बने हुये घड़ियाल, घण्टा, झांझरी, मंजीरा आदि बाजोंके अभिघातसे जन्य है वह घन है. वांसरी, बांस, वैन, तुरई, शंख आदि को निमित्त पाकर उपजा हा शब्द शौषिर है। दूसरा प्रभाषात्मक शब्द वैनसिक तो मेघ, विजली, समुद्र आदि से उपज रहा माना जाता है ।
बंधो द्विविधो विलसाप्रयोगभेदात् . विरसा बधोऽनादिरादिमांश्च, प्रयोगवंधः पुनरादिमानेव पर्यायतः।
पुद्गल की बन्ध नामक पर्याय भी विस्रसा और जीब प्रयोग करके उपजने के अनुसार भेद से दो प्रकार है यहां प्रकरण में विस्रसा शब्द का अर्थ जीव प्रयत्न के अतिरिक्त अन्य सभी कारण हैं। उनमें वैससिक बन्धके दो भेद हैं , उनमें पहिला महास्कन्ध आदि का अनादि बन्ध है और चिकनापन या रूखापन को निमित्त पाकर बिजली मेघ. इन्द्र धनुष प्रादि का बन्ध हुआ सादि बन्ध है । अर्थात्इतनी लम्बी चौड़ी, विजली अनेक चमकीले पुद्गलों का पिण्ड है वे पुद्गल परस्पर में एक दूसरे के साथ बंध रहे हैं सूर्य की किरणों को निमित्त पाकर आकाश में भरे हुए बादल आदि पुद्गलों का इन्द्र . धनुष स्वरूप परिणमन होजाता है। जैसे कि एक शुक्ल वर्ण, मोटे, पैलदार, कांच को या पैलदार