Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वार्तिक
न स्फोटात्मापि तस्यैकस्वभावस्याप्रतीतितः।
शब्दात्मनस्सदा नानास्वभावस्यावभासनात् ॥ ३॥
यह सुना जा रहा शब्द तो स्फोटस्वरूप भी नहीं है अर्थात्-मीमांसकों ने वणम्फोट . पदस्फोट. वाक्यस्फोट, को अर्थ का वाचक माना है शब्द के समान स्फोट को भी मीमांसक नित्य और व्यापक स्वीकार करते हैं नियत अर्थ की प्रतीति का हेतु होरहा वह स्फोट प्रक्रम और निरश मान। गया है। प्राचार्य कहते हैं कि मीमांसकों के यहाँ स्फोट की कल्पना नहीं हो सकती है, स्फोट का नित्यः पना और व्यापकपना भी निराकृत होजाता है पूर्व के प्रप्रकट रूप का त्याग करने पर और उत्तर वर्ती प्रकट रूप का ग्रहण करने पर स्फोट का कूटस्थ नित्यपना बाधित होजाता है। व्यंजक कारणों करके स्फोट की अभिव्यक्ति यदि स्फोट से अभिन्न की गयी तो फिर स्फोट ही किया गया समझा जायगा, भिन्न पड़ी हुयी अभिव्यक्ति से स्फोटका स्वरूप पूर्ववत् अन्धेरेमें ही पड़ा रहेगा । यों स्फोटवाद में अनेक दोष पाते हैं । तथा वह शब्द तीव्र, मन्द, खर, निषाद, धैवत, उदात्त, अपभ्रंश संस्कृत,सत्य
आमंत्रण, निष्ठुर, आदि अनेक स्वभावो वाला है एक ही स्वभाव वाले शब्द की प्रतीति नहीं हो रही है नाना स्वभावों वाले शब्द स्वरूपका सर्वदा प्रतिभास हो रहा है,किसी भी एक शब्दको दूरदेशवर्ती, निकटदेश-वर्ती,प्रति समीप देशवर्ती, अनेक पुरुष न्यारे न्यारे ढंगों से सुनते हैं, यावन्ति कार्याणि तावन्तः प्रत्येकस्वभावभेदाः ,, इस नियम अनुसार वे सम्पूर्ण स्वभाव शब्द की प्रात्मा में प्रविष्ट होरहे माने ही जाते हैं,स्वचतुष्टय से शब्द है. परकीय चतुष्टयसे नहीं, यों भी शब्द अनेक स्वभावों वाला है। शब्द में उत्पाद, व्यय, ध्रौप, भी है, अतः अनेक युक्तियों से नाना स्वभाव-वाला शब्द सिद्ध हो जाता है।
अतःप्रकाशरूपस्तु शब्दस्फोटोपरोऽवनेः । यथार्थगतिहेतुः स्यात्तथा गंधादितोपरः॥४॥ गंधरूपरसस्पर्शस्फोटः किं नोपगम्यते। तत्राक्षेपसमाधानसमत्वात्सर्वथार्थतः ॥ ५॥
शब्दादैतवादी पण्डित सम्पूर्ण ज्ञानों या अर्थों को शब्द-प्रात्मक स्वीकार करते हैं उनका अनुभव है कि यदि ज्ञानों में से शब्द स्वरूप को निकाल दिया जाय तो ज्ञान का पूरा शरीर मर जायगा, वागरूपता ही तो ज्ञान को प्रकाशती है, वही विचार करने वाली है, अनादि अनन्त शब्द ब्रह्म ही जगत के अनेक पदार्थों स्वरूप परिणम जाता है वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ति और सूक्ष्मा ये चार वाणी हैं, इनमें सूक्ष्म वाणी अन्तरंग प्रकाशस्वरूप है, यह शब्दस्फोट भी कहा जा सकता है जो कि वायुस्वरूप ध्वनिसे निराला है, यही शब्दस्फोट वाच्य की यथाथ प्रतीति का कारण है । ग्रन्थकार कहते हैं कि प्रथम तो शब्दाढत ही प्रत्यक्षवाधित है अर्थ या ज्ञानों को यदि शब्द से अनुविद्ध माना जायगा तो बालक, गूगे, मौनव्रती, आदि को पदार्थों का प्रतिभास नहीं हो सकेगा, पत्थर, अग्नि, तोपगोला, विजली, प्रादि शब्दों के सुनते ही कान जलजाने, फूट जाने आदि का प्रसंग आवेगा जब कि शब्द केवल श्रोत्रइन्द्रिय का विषय है तो वह अन्य इन्द्रियों के विषयों या सम्पूर्ण ज्ञानों के साथ तादात्म्य