Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम-अध्याय
१९३.
ततो नावस्थितस्यैव द्रव्यस्य परिणामः, पूर्वापरस्वभावत्यागोपादानविरोधात् । नाप्यनवस्थितस्यैव सर्वथान्वयरहितस्य परिणमनाघटनादिति स्यादवस्थितस्य द्रव्यार्थादेशात, स्यादनव स्थितस्य पर्यायार्थादेशादित्यादि सप्तभंगोमाक् परिणामो वेदितव्यः । सोयं परिणामः कालस्योपकारः, सकृत्सर्वपदार्थगस्य–परिणामस्य वाह्यकारणमंतरेणानुपपत्तेर्ववर्णनात् यत्तद्वाचं निमित्तं स कालः।
तिस कारण से सिद्ध होजाता है कि सर्वथा नित्य अवस्थित होरहे ही द्रव्य के ये जन्म आदि परिणाम नहीं हैं, सर्वाङ्ग ध्रुव द्रव्य के ही इनको विकार मानने पर पूर्व स्वभावों के त्याग और उत्तर स्वभावों के ग्रहण का विरोध होजावेगा तथा सर्वथा अनवस्थित होरहे ही क्षणिक परिणाम के भी
द विकार नहीं है । क्योकि कालत्रय में प्रोत प्रोत हारह अन्वय से सर्वथा रहित पदार्थका परिणाम होना घटित नहीं होता है, जो दूसरे क्षण में ही मर जाता है वह परिणासों को क्या धारेगा इस कारण यहाँ स्यद्वादनीति की योजना यों कर लेना कि द्रव्याथिक नय अनुसार कथन करने से कथंचित् अवस्थित होरहे द्रव्य के जन्म, वृद्धि, आदिक परिणाम हैं और पर्यायार्थिक नय अनुसार कथन करने से कथंचित् अनवस्थित होरहीं पर्यायों के जन्म आदि विवर्त हैं, स्यात् उभय है, स्यात् अनुभय है, इत्यादि रूप से सप्तभंगी को धार रहा यह परिणाम समझ लेना चाहिये जो कि यह प्रसिद्ध होरहा परिणाम काल का उपकार है । कारण कि सम्पूर्ण पदार्थों में युगपत् ( एक वार ) प्राप्त होरहे परिणामों की वाह्य कारण के विना सिद्धि नहीं होपाती है, इसका हम वर्णन कर चुके हैं। जो उस परिणाम का वहिरंग निमित्त है वह काल पदार्थ है, वर्तना का निमित्त मुख्य काल द्रव्य है और परिणाम का वहिरंग कारण व्यवहारकाल है।
ननु च कालस्य परिणामो यद्यस्ति तदासौ वाह्यान्यनिमित्तापेक्षं सनिमित्तं परिणाममात्मसात्कुर्वदपरनिमित्तापेक्षमित्यनवस्था स्यात् । कालपरिणामस्य वाह्यनिमित्तानपेक्षत्वे पुद्गलादिपरिणामस्यापि वाह्यनिमित्तापेक्षा माभूत् । अथ कालस्य परिणामो नास्ति "सर्वाथपरिणानिमित्तत्वात् " साधनमप्रयोजकं स्यात्तेन व्याभेचारात् ततो न कालस्य परिणामोऽनु. मापक इति कश्चित् ।
___ यहां किसी का आक्षेप प्रवर्तता है कि जिस प्रकार जीव, घट, आदि का परिणाम होना अन्य वहिरंग निमित्तों की अपेक्षा रखता है, उसी प्रकार यदि काल का भी परिणाम होता है । तब तो वह काल का परिणाम यदि वहिरंग अन्य निमित्त कारण की अपेक्षा रखता सन्ता तज्जन्य परिणति को अपने अधीन करता हुआ पुनः तीसरे इतर निमित्त की अपेक्षा करेगा और तोसरे का परिणाम भी अन्य चौथे काल सारिखे वहिरंग कारण की अपेक्षा रखेगा यों पांचवें. छठे आदि वहिरंग कारणों की अपेक्षा की प्राकांक्षा बढते बढते अनवस्था होजायगी, काल के परिणाम को स्वात्म-लाभ में यदि वहिरंग निमित्तों की अपेक्षा नहीं मानी जावेगी तब तो पुद्गल, जीब, आदि के परिणामों को भी वहिरंग निमित्त कारण माने जा रहे काल की अपेक्षा नहीं होवे, काल के और पुद्गल आदि के परिणामों में बहिरंग कारण की अपेक्षा रखने या नहीं रखने का कोई अन्तर नहीं दीख रहा है, या तो दोनों पलंने
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